________________ 102 गणधरवाद गणधर इत्यादि वाक्यों में मनुष्य की स्वर्ग प्राप्ति तथा देवत्व प्राप्ति का उल्लेख है, यह भो बाधित हो जाएगा। अतः परलोक में जाति-सादृश्य का आग्रह नहीं रखना चाहिए। सुधर्मा-फिर वेद में यह कथन किसलिए किया है कि 'पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशु वम् / अर्थात् पुरुष मर कर पुरुष होता है तथा पशु मर कर पशु होते हैं' आदि। __भगवान्- तुम इस वाक्य का यथार्थ अर्थ नहीं जानते, इसीलिए तुम्हे संशय होता है / इसका अर्थ यह है -जो मनुष्य इस भव में सज्जन प्रकृति का होता है, विनयी, दयालु तथा अमत्सरी होता है; वह मनुष्य-नाम-कर्म तथा मनुष्य-गोत्रकर्म का बन्धन करता है / तदनन्तर वह मर कर उस कर्म के कारण पुनः मनुष्यरूपेण जन्म ग्रहण करता है। सभी मनुष्य उक्त कर्म का बन्धन नहीं करते, अतः अन्य पुरुष भिन्न प्रकार के कर्म-बन्धन के कारण अन्यान्य योनि में जन्म लेते हैं / इसी प्रकार इस भव में जो पशु माया के कारण पशु-नाम-कर्म तथा पशु-गोत्र-कर्म का उपार्जन करते हैं वे पर-भव में भी पुनः पशुरूप में उत्पन्न होते हैं। सभी पशु उक्त कर्म का बन्धन नहीं करते, अतः सभी पशुरूप में अवतरित नहीं हाते। इस प्रकार जीव की गति कर्मानुसारी है। [1800] उक्त प्रकार से जरा-मरण से रहित भगवान् ने जब उसके संशय का निवारण किया तब सुधर्मा ने अपने 500 शिष्यों के साथ जिन दीक्षा अंगीकार की। [1801] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org