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________________ 100 गणधरवाद [गणधर में परिणमन प्रत्यक्ष हो सिद्ध है। तुम स्वभाव को वस्तु-धर्म कहते हो, किन्तु यह तो बताओ कि वह आत्मा का धर्म है अथवा पुद्गल का ? यदि वह आत्मा का धर्म है तो आकाश के समान अमूर्त होने से वह शरीरादि का कारण नहीं बन सकता और यदि उसे पुद्गल का धर्म माना जाए तो कर्म का ही अपर नाम स्वभाव होगा, क्योंकि मैं कर्म को पुद्गलास्तिकाय में समाविष्ट करता हूँ। [1762] अतः हे सुधर्मन् ! यदि तुम स्वभाव को पुद्गलमय कर्मरूप वस्तु का परिणाम अर्थात् धर्म मानते हो और उसे ही इस जगत् के वैचित्र्य का कारण समझते हो तो इसमें कुछ भी दोष नहीं है, किन्तु तुम्हे यह न मानना चाहिए कि वह सदा सदृश ही है। मिथ्यात्व आदि हेतु से कर्म-परिणाम विचित्र बनता है और इसी कारण उसका कार्य भी विचित्र हो जाता है, यह बात तुम्हें स्वीकार करनी चाहिए। अतः परभव में एकान्त सादृश्य नहीं, किन्तु वैसादृश्य भी सम्भव है। [1763] वस्तु समान तथा असमान है - अयवा सुधमन् ! वस्तु का स्वभाव हो ऐसा है कि उसमें प्रत्येक क्षण कुछ समान तथा कुछ असमान पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश हवा ही करते हैं तथा उसका द्रव्यांश तदवस्थ (एकरूप) रहता है। अतः दूसरे क्षण में वस्तु स्वयं वैसी ही नहीं रहती है। अर्थात् पूर्वकाल में वस्तु का जो रूप होता है, उत्तर-काल में उससे विलक्षण हो जाता है। जब अपनी ही समानता स्थिर नहीं रहती, तब दूसरे पदार्थों के साथ की समानता कैसे रह सकती है ? फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि वह संसार के सभी पदार्थों से सर्वथा विलक्षण है। कारण यह है कि अस्तित्व आदि कुछ समान धर्मों के कारण संसार के सभी पदार्थों से उसका साम्य है, अतः अपनी पूर्वकालिक अवस्था के साथ उन समान धर्मों के कारण उसका साम्य होगा हो, इसमें सन्देह नहीं है। [1764-65] सारांश यह है कि इस भव में भी ऐसी कोई वस्तु नहीं है जा सर्वथा असमान ही हो, तो फिर परभव में ऐसा कैसे हो सकता है ? ठीक बात तो यह है कि संसार के सभी पदार्थ सदृश भी हैं और असदृश भी, नित्य भी हैं तथा अनित्य भी। वे अनेक विरोधी धर्मों से युक्त हैं। [1766] समस्त विश्व के पदार्थों के साथ सत्वादि धर्मों के कारण समानता होने पर भी जैसे युवक की अपनी भूतकालीन बाल्यावस्था तथा भावी वृद्धावस्था के साथ समानता नहीं होती, वैसे ही जीव की भी अस्तित्व आदि धर्मों के कारण समस्त वस्तुओं से समानता होने पर भी परभव में सर्वथा समानता नहीं होती; किन्तु समानता तथा असमानता दोनों होती हैं। [1767] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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