________________ सुधर्मा ] इस भव तथा परभव के सादृश्य की चर्चा 99 उसे ही मैं कर्म कहता हूँ। इनमें केवल नामका भेद है / स्वभाव परिणामी होने के कारण दूध के समान सदा एक जैसा भी नहीं रह सकता। अथवा बादल के समान मूर्त होने के कारण भी स्वभाव एक जैसा नहीं रह सकता। सुधर्मा—स्वभाव मूर्त नहीं, परन्तु अमूर्त है / भगवान्--यदि स्वभाव अमूर्त है तो उपकरण-रहित होने से वह शरीर आदि कार्यों का उत्पादक नहीं हो सकता / जैसे कुम्भकार दण्डादि उपकरण के बिना घट का निर्माण नहीं कर सकता वैसे स्वभाव भी उपकरण के अभाव में शरीर आदि का निर्माण नहीं कर सकता अथवा अमूर्त होने से अाकाश के समान वह कुछ भी नहीं कर सकता। / पुनश्च, शरीर आदि कार्य मूर्त है तो भो हे सुधर्मन् ! अमूर्त स्वभाव से उसका निष्पादन सम्भव नहीं है, जैसे अमूर्त आकाश से मूर्त कार्य नहीं होता / मूर्त कर्म को माने बिना सुख-संवेदन आदि भी घटिता नहीं होता। इसकी विशेष चर्चा अग्निभूति के साथ की ही गई है। अतः स्वभाव को अमूर्त भी नहीं माना जा सकता। [1789-90] सुधर्मा- ऐसी स्थिति में दूसरे विकल्प के अनुसार स्वभाव अर्थात् निष्कारणता यह उपयुक्त प्रतीत होता है। __भगवान्-स्वभाव को निष्कारणता मान कर भी परभव में सादृश्य कैसे घटित होगा? यदि सादृश्य का कोई कारण नही हैं तो वैसादृश्य का कारण भी क्यों माना जाए ? अर्थात् सादृश्य के समान वैसादृश्य भी कारण-रहित हो जाएगा। फिर कारण न होने से भव का विच्छेद ही क्यों नहीं हो जाता ? अर्थात् मोक्ष भी निष्कारण मानना चाहिए। यदि शरीरादि की उत्पत्ति कारण-विहीन है तो खर-विषाण की उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती ? कारण के बिना शरीरादि का प्रतिनियत आकार भी कैसे होगा ? बादलों के समान अनियत आकार वाला शरीर क्यों उत्पन्न नहीं होता ? स्वभाव को निष्कारणता मानने से इन समस्त प्रश्नों का समाधान नहीं होता। अतः अकारणता को स्वभाव नहीं माना जा सकता। [1761] सुधर्मा-फिर स्वभाव को वस्तु-धर्म मानना चाहिए। भगवान --यदि स्वभाव वस्तु-धर्म हो तो वह सदा एक जैसा नहीं रह सकता, ऐसी दशा में वह सदा सदृश शरीरादि को किस प्रकार उत्पन्न कर सकेगा ? सुधर्मा--किन्तु वस्तु-धर्मरूप स्वभाव सदा सदृश क्यों नहीं रह सकता ? भगवान्-कारण यह है कि वस्तु को पर्याय उत्पाद-स्थिति-भंगरूप विचित्र होती हैं, अतः वे सदा सदृश नहीं रह सकतीं। वस्तु के नीलादि धर्मों का अन्य रूप 1. गाथा 1625, 16 26. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org