________________ 98 गणधरवाद गणधर सुधर्मा-घटादि कार्य में कुम्भकार, चक्र आदि रूप कर्त्ता और करण प्रत्यक्ष सिद्ध हैं, अत: उन्हें मानने में आपत्ति नहीं है, किन्तु शरीरादि कार्य तो बादल के विकार के समान स्वाभाविक ही है, इसलिए उसके निर्माण में कर्म-रूप करण की अावश्यता नहीं है। ___ भगवान्-- तुम्हारा यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर सादि है तथा प्रतिनियत (निश्चित) आकार वाला भी है, अतः घट के समान उसका कोई कर्ता और करण होना चाहिए। तुमने कारणानुरूप कार्य का जो सिद्धान्त स्वीकार किया है वह भी बादल के विकार-रूप दृष्टान्त में घटित नहीं होता होता। कारण यह है कि बादल के विकार अपने कारण-रूप द्रव्य पुद्गल से अति विलक्षण दिखाई देते हैं। सारांश यह है कि शरीर आदि काय को स्वाभाविक नहीं माना जा सकता। [1785] __ अपि च, स्वभाव क्या है ? वस्तु है ? निष्कारणता है ? अथवा वस्तु-धर्म है ? यदि तुम उसे वस्तु मानते हो तो उसकी उपलब्धि होनी चाहिए, किन्तु आकाशकुसुम के समान उसको उपलब्धि नहीं होती। अतः स्वभाव जैसी कोई वस्तु नहीं है। [1786] स्वभाववाद का निराकरण __ यदि आकाश-कुसुम के समान अत्यन्त अनुपलब्ध होने पर भी स्वभाव का अस्तित्व स्वीकार करते हो तो फिर अनुपलब्ध होने पर कर्म का अस्तित्व क्यों नहीं स्वोकार करते ? जिस कारण के आधार पर स्वभाव का अस्तित्व मानते हो, उसी कारण से कर्म का अस्तित्व भी मान लेना चाहिए। [1787] कल्पना करो कि मैं स्वभाव का ही दूसरा नाम कर्म रख देता हूँ तब तुम ही बताओ इसमें क्या दोष है ? अपि च, यदि स्वभाव हमेशा सदृश ही रहे तो ही सदा एक-रूप कार्य बने, अर्थात् मनुष्य मर कर मनुष्य हो। किन्तु मैं पूछता हूँ कि स्वभाव हमेशा एक जैसा क्यों रहता है ? यदि तुम यह कहो कि स्वभाव का स्वभाव ही ऐसा है कि वह हमेशा सदृश रहता है, अत: उससे सदृश भव ही होता है; तो फिर इस के उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि स्वभाव का स्वभाव ही ऐसा है कि जिससे विसदृश भव उत्पन्न होता है। [1788] पुनश्च स्वभाव मूर्त है अथवा अमूर्त ? यदि स्वभाव मूर्त है तो उसमें और कर्म में क्या भेद है ? दोनों मूर्त होने से समान ही हैं। तुम जिसे स्वभाव कहते हो, 1. गाथा 1643 में भी स्वभाववाद के विषय में चर्चा की गई है, उसे देख लेना चाहिए / वस्तुतः गाथा 1786-1793 को सम्मुख रख कर ही गाथा 1643 की टीका में टीकाकार ने स्वभाववाद का खण्डन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org