________________ सुधर्मा ] इस भव तथा परभव के सादृश्य की चर्चा 97 भव में जीव मनुष्यादि के रूप से जैसा होगा, वैसे का वैसा वह पर-भव में भी रहेगा उसमें वैसादृश्य का अवकाश नहीं रहता। भगवान .... ऐसी बात मानने से तो पर-भव में जीव का तुम्हें जो इष्ट है वह सर्वथा सादृश्य घटित ही नहीं होता। पर-भव में जीव की उत्पत्ति का कारण कर्म है, किन्तु तुम उस कर्म या कर्म के फल को परलोक में मानते ही नहीं। सुधर्मा-कर्म के बिना भी जीव परलोक में सदृश ही होता है / भगवान्- इस से तो निष्कारण की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि परलोक में सादृश्य के किसी भी कारण के अभाव में उसकी उत्पत्ति हुई; किन्तु उत्पत्ति निष्कारण नहीं होती / अतः यह मानना पड़ेगा कि जो कर्म नहीं किया, उसका फल मिला, तथा परलोक के लिए जो दानादि क्रिया की थी वह निष्फल सिद्ध हुई। इस प्रकार कृत का नाश स्वीकार करना होगा। [1783] अपि च, यदि दानादि क्रिया परलोक में निष्फल होंगी तो वस्तुतः कर्म का हो अभाव हो जाएगा। कर्म के अभाव में परलोक को ही सत्ता नहीं रहेगी। फिर सादृश्य का प्रश्न ही कैसे उत्पन्न होगा? सुधर्मा-कर्म के अभाव में भो भव नानने में क्या आपत्ति है ? कर्म के अभाव में संसार नहीं भगवान् -ऐसी स्थिति में भव का नाश भी निष्कारण मानना पड़ेगा। अतः मोक्ष के लिए तपस्या आदि अनुष्ठान भो व्यर्थ ही सिद्ध होंगे। फिर यदि भव निष्कारण हो सकता है तो जीव के वैसादृश्य को भी निष्कारण ही क्यों न मान लिया जाए ? [1784] सुधर्मा--कर्म के अभाव में स्वभाव से ही परभव मानने में क्या हानि है ? जैसे कर्म के बिना भी मिट्टो के पिण्ड से उस के अनुरूप घट का निर्माण स्वभावतः होता है, वैसे ही जीव की सदृश जन्म-परम्परा स्वभाव से ही होती है। परभव स्वभाव-जन्य नहीं भगवान् -घड़ा भी केवल स्वभाव से ही उत्पन्न नहीं होता, किन्तु वह कर्ता, करण आदि की भो अपेक्षा रखता है। इसी प्रकार जीव के विषय में भी जीव को तथा उसके परभव के शरी आदि के निर्माण को करण की अपेक्षा है। संसार में जो करण होता है वह कर्ता से तथा कार्य से -कुम्भकार और घट से--- चक्र के समान भिन्न होता है / इसलिए जीवरूप कर्ता से तथा पारभविक-शरीर-रूप कार्य से प्रस्तुत में भी करण पृथक होना चाहिए / वही कर्म है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org