________________ 96 गणधरवाद [ गणधर उक्त वस्तु को सिद्ध करने के लिए अनुमान प्रमाण भी है। वह यह हैजीवों की सांसारिक अवस्था नारकादि रूप में विचित्र है, क्योंकि वह विचित्र कर्म का फल अथवा कार्य है। जो विचित्र हेतु का फल होता है, वह विचित्र होता है; जैसे कृषि आदि विचित्र कर्म का फल लोक में विचित्र दृष्टिगोचर होता है / [1776] सुधर्मा-कर्म की विचित्रता का क्या प्रमाण है ? __ भगवान्-कर्म पुद्गल का परिणाम है अतः उस में बाह्य अभ्रादि विकार के समान अथवा पृथ्वी आदि के विकार के समान विचित्रता है। जो विचित्र परिणति वाला नहीं होता वह आकाश के समान पुद्गल का परिणाम भी नहीं होता / यद्यपि पुद्गल के परिणाम के रूप में कर्म के सभी परिणाम समान हैं, तथापि कर्म की आवरण रूप से जो विशेषता है वह मिथ्यात्व आदि सामान्य हेतुओं तथा ज्ञानी के प्रद्वेष आदि विशेष हेतुओं की विचित्रता के कारण है / [1780] सुधर्मा—क्या इस भव के समान परभव कभी सम्भव ही नहीं है ? इस भव की तरह पर-भव विचित्र है - भगवान्-यदि इस भव के अनुरूप परभव मानना हो तो भी जैसे इस भव में कर्मफल की विचित्रता दृश्य है वैसे परभव में भी माननी चाहिए। अर्थात् इस भव में जीव शुभा-शुभ विचित्र क्रिया करते हैं, विचित्र कर्म करते हैं, उनके अनुरूप ही परभव में भी विचित्र फल मानना चाहिए / [1781] सुधर्मा- कृपया आप इसे स्पष्टता पूर्वक समझाएँ / __ भगवान् -इस संसार में जीव नाना प्रकार से कर्म बाँधते हैं, कुछ नारक योग्य कर्मबन्धन करते हैं तथा कूछ देव आदि योनि के योग्य / यह बात सभी को प्रत्यक्ष है / अब यदि परलोक में इन कर्मों का फल उन्हें मिलना ही हो तो हम यह कह सकते हैं कि इस लोक में उन के कर्म या उन की क्रिया को जैसी विचित्रता है, वैसी ही परलोक में उन जीवों की विचित्रता होगी। अतः एक अपेक्षा से तुम्हारा कथन ठीक ही है कि इस भव में जो जैसा होता है वह परलोक में भी वैसा ही होता है। अर्थात् जो इस भव में अशुभ कर्म बाँधता है वह परभव में भी अशुभ कर्मों को भोगने वाला होता है। इस प्रकार 'जैसे को तैसा' इस अर्थ की अपेक्षा से तुम्हारा न्याय भी युक्त हो जाता है। [1782] कर्म का फल परभव में भी होता है सुधर्मा-इस भव में ही जिसका फल मिलता है, ऐसा कृषि आदि कर्म ही सफल है, किन्तु परभव के लिए जो दानादि कर्म किए जाते हैं उनका कुछ भी फल नहीं मिलता। अतः परभव में विचित्रता का कोई कारण नहीं रहेगा। फलतः इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org