________________ सुधौ / इस भव तथा परभव के सादृश्य की चर्चा 95 ___ सुधर्मा -हाँ, भगवन् ! आपने मेरे मन की बात ठीक-ठीक कह दी है, किन्तु मेरी मान्यता अयुक्त क्यों हैं ? संशय निवारण-कारण से विलक्षण कार्य भगवान्----यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है कि कार्य कारण के सदृश ही होता है। शृग से भी शर नामक वनस्पति उत्पन्न होती है और उसी पर यदि सरसों का लेप किया जाए तो पुनः उसी में से अमुक प्रकार का घास उत्पन्न होता है। इस के अतिरिक्त गाय तथा बकरी के बालों से दूर्वा उत्पन्न होती है / इस प्रकार नाना प्रकार के द्रव्यों के संयोग से विलक्षण वनस्पति की उत्पत्ति का वर्णन वृक्षायुर्वेद में है। इससे सिद्ध होता है कि यह कोई नियम नहीं है कि कार्य कारणानुरूप ही होता है / कार्य कारण से विलक्षण भी हो सकता है। योनिप्राभूत के योनि-वर्णन से भी सिद्ध होता है कि नाना द्रव्यों के संमिश्रण से सर्प, सिंहादि प्राणियों की तथा सुवर्ण व मणि की उत्पत्ति होतो है / अतः यह मानना चाहिए कि कार्य कारण से विलक्षण भी उत्पन्न हो सकता है। यह एकान्त नहीं है कि कार्य कारणानुरूप ही होना चाहिए। [1774-75] कारण वैःचत्र्य से कार्य वैचित्र्य कारणानुरूप कार्य मानने पर भी भवान्तर में विचित्रता की सम्भावना है। अर्थात् कारणानुरूप कार्य स्वीकार करके भी यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि मनुष्य मरकर मनुष्य ही बनता है। सुधर्मा-यह कैसे? भगवान्--यदि तुम बीज के अर्थात् कारण के अनुरूप ही अँकुर अर्थात् कार्य की उत्पत्ति मानते हो तो भी तुम्हें परजन्म में जीव में वैचित्र्य मानना ही पड़ेगा। कारण यह है कि भवांकुर का बीज मनुष्य नहीं किन्तु उस का कर्म है और वह विचित्र होता है / अतः इसमें कोई नई बात नहीं कि मनुष्य का परभव विचित्र हो / जब कारण ही विचित्र है तो कार्य भी विचित्र होगा ही। सुधर्मा-कर्म की विचित्रता का क्या कारण है ? भगवान्क र्म के हेतुओं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग में विचित्रता है, अतः कर्म भी विचित्र है। कर्म के विचित्र होने के कारण जीव का भवांकुर भी विचित्र ही होगा। यह बात तुम्हे माननी ही चाहिए। अतः मनुष्य मर कर अपने कर्मों के अनुसार नारक, देव, अथवा तिर्यंच रूप में भी जन्म ले सकता है। [1776-78] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org