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________________ 92 गणधरवाद गणधर व्यक्त किसी के मन के भावों को कैसे जाना जाए? भगवान्–पाँच समिति तथा तीन गुप्ति सम्पन्न ज्ञानी साधु अहिंसक होता है, किन्तु इसके विपरीत जो असंयमी है, वह हिंसक है। उक्त संयमी से जोव का घात हो या न हो किन्तु उससे वह हिंसक नहीं कहलाता; क्योंकि हिंसक होने का प्राधार आत्मा के अध्यवसाय पर है। बाह्य-निमित्त-रूप जीवघात तो व्यभिचारी है। [1765] व्यक्त—यह कैसे? भगवान् - वस्तुतः निश्चय नय से अशुभ परिणाम का नाम ही हिंसा है / यह अशुभ परिणाम बाह्य जीवधात को अपेक्षा रख भी सकता है और नहीं भी रखता। सारांश यह है कि अशुभ परिणाम ही हिंसा है। बाह्य जीव का घात हुआ हो या न हुआ हो अशुभ परिणाम वाला जीव हिंसक है। [1766] व्यक्त-तो क्या बाह्य जीव का घात हिंसा नहीं कहलाती ? भगवान् -जो जीव-वध अशुभ परिणामजन्य हो अथवा अशुभ परिणाम का जनक हो वह जीव-वध तो हिंसा ही है; अतः यह नहीं कहा जा सकता कि जीव-वध सर्वथा हिंसा है ही नहीं। जो जीव-वध अशुभ परिणाम से जन्य नहीं अथवा अशुभ परिणाम का जनक नहीं, वह हिंसा की कोटि में नहीं आता। [1767] जैसे इन्द्रियों के विषय, रूप, शब्दादि वीतराग पुरुष के लिए राग के जनक नहीं होते, क्योंकि वीतराग पुरुष के भाव शुद्ध हैं; वैसे ही संयमी का जीव-वध भी हिंसा नहीं है / कारण यह है कि उसका मन शुद्ध है। अतः हे व्यक्त ! यह कहना ठीक नहीं कि लोक-जीव संकुल है, अतः संयमी को भी हिंसा का दोष लगेगा और अहिंसा का अभाव हो जाएगा। ___ इस तरह यह बात सिद्ध हो गई कि संसार में पाँच भूत हैं, उनमें पहले चार—पृथ्वी, जल, तेज, वायु सजीव हैं और पाँचवा आकाश निर्जीव है / व्यक्त-प्रमाण से पाँच भूतों की सिद्धि हुई, किन्तु वेद-वचन के विरोध के विषय में आप क्या कहते हैं ? वेद-वचन का समन्वय भगवान्-वेद में संसार के सभी पदार्थों को स्वप्न-सदृश कहा है, इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका सर्वथा अभाव है। किन्तु अन्य जीव इन पदार्थों में अनुरक्त होकर मूढ़ न हो जाएं, उनमें आसक्त न हो जाएँ, इस उद्देश्य से उन्हें स्वप्नोपम अथवा असार बताया गया है। मनुष्य संसार के परि ग्रह से मुक्त हो कर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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