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________________ 50 गणधरवाद [ गणधर अपि च, वनस्पति. में चतन्यसाधक अन्य हेतु भी हैं। स्पृष्टप्ररोदिका (लाजवन्ती) वनस्पति क्षुद्र जीव के समान केवल स्पर्श से संकुचित हो जाती है। लता अपना आश्रय प्राप्त करने के लिए मनुष्य के समान वृक्ष की ओर संचरित होती है / शमी प्रादि में निद्रा, प्रबोध, संकोच आदि जीव के लक्षण माने गए हैं / यह भी सिद्ध है कि अमुक काल में बकुल शब्द का, अशोक वृक्ष रूप का, कुरुबक गन्ध का, विरहक रस का तथा चम्पक तिलक आदि स्पर्श का उपभोग करते हैं / [1753-55] पुनश्ब, जैसे मनुष्य आदि जीवों में अर्श के माँस का अँकुर फूटता है, अर्थात् एक बार अर्श को काटने के बाद फिर उसके माँस के अंकुर उत्पन्न होते हैं, वैसे वृक्ष समूह, विद्रुम, लवण तथा उपल में भी जब तक वे स्वाश्रयस्थान में होते हैं, तब तक एक बार छिन्न होने के बाद पुनः स्वजातीय अंकुरों का प्रादुर्भाव होता है और वे बढ़ते हैं / अतः उनमें जीव है। व्यक्त-पृथ्वी आदि भूतों को सचेतन सिद्ध करने का प्रसंग है, अतः सर्वप्रथम पृथ्वी को ही सजीव सिद्ध करना चाहिए था / उसके स्थान पर प्रथम वृक्षों में तथा तत्पश्चात् विद्रुम (प्रवाल), लवणादि रूप पृथ्वी में सजीवता सिद्ध करने का क्या कारण है ? भगवान-लौकिक प्रसिद्धि के अनुसार वनस्पति भी पृथिवीभूत का विकार है, अतः पृथ्वीभूत में उसका समावेश है। वह कोई स्वतन्त्र भूत नहीं है। इस के अतिरिक्त वनस्पति में जैसे स्पष्ट चैतन्य लक्षण दिखाई देते हैं वैसे विद्रुम आदि में नहीं हैं / इन कारणों से पहले वक्ष में हो सजीवता सिद्ध की है। [1756] व्यक्त -जल को सचेतन कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? भगवान्-जमीन खोदने से जमीन से सजातीय-स्वरूप स्वाभाविक रूप से पानी निकलने के कारण वह मेंढक के समान सजीव है। अथवा मछली के समान बादलों से गिरने के कारण आकाश का पानी सजीव है / [1757] व्यक्त- वायु की सजीवता कैसे मानी जाए ? भगवान - जैसे गाय किसी की प्रेरणा के बिना ही अनियमित रूप से तिर्यक गमन करती है, वेसे वायु भी गति करती है; अतः वह सजीव है / व्यक्त - अग्नि की सजीवता का क्या कारण है ? भगवान् -जैसे मनुष्य में आहार आदि से वृद्धि और विकार दृष्टिगोचर होते हैं वैसे ही अग्नि में भी काष्ठ के आहार से वृद्धि और विकार दिखाई देते हैं। अतः वह मनुष्य के समान सजीव है। [1758] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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