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________________ 88 गणधरवाद [गणधर अन्य पदार्थ भी ऐसे हो सकते हैं जो अप्रत्यक्ष होकर भी विद्यमान हों। इसी तरह पर-मध्यभाग भी अप्रत्यक्ष होकर विद्यमान हो सकते हैं। व्यक्त-'अप्रत्यक्ष होने से संशयादि ज्ञान भी विद्यमान नहीं है, यदि मैं यह बात कहूँ तो? भगवान्–तो फिर यही हुया न कि तुम्हें भूतों की शून्यता के विषय में संशय नहीं हैं। तो फिर वह किस को है ? और वह क्या है ? तथा शून्यता को किसने पहिचाना है ? सारांश यह है कि किसी दूसरे को भूतों के विषय में सन्देह ही नहीं है। यह सन्देह तुम्हें ही था / अब तुम कहते हो कि मुझे भी सन्देह नहीं है। फिर तो यह चर्चा यहीं समाप्त हो जानी चाहिए, क्योंकि दूसरे लोगों को इन ग्राम, नगर आदि की सत्ता के विषय में लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। अतः सर्वशून्यता का प्रश्न ही नहीं रहता। [1747] पृथ्वी प्रादि भूत प्रत्यक्ष हैं ___ अतः हे व्यक्त ! पृथिवी, जल, अग्नि, आदि जो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उनके विषय में तुम्हें भी सन्देह नहीं करना चाहिए। जैसे कि तुम अपने स्वरूप के विषय में सन्देह नहीं करते। वायु तथा आकाश प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, उनके विषय में कदाचित् संशय हो सकता है, किन्तु उस संशय का निवारण अनुमान से हो सकता है / [1748] व्यक्त–वायु की सिद्धि के लिए कौन-सा अनुमान है ? वायु का अस्तित्व भगवान्-स्पादि गुणों का गुणी अदृश्य होने पर भी विद्यमान होना चाहिए क्योंकि वे गुण हैं, जैसे कि रूप गुण का गुणी घट है। अतः स्पर्श-शब्द-स्वास्थ्यकम्पादि गुणों का जो गुरगी सम्पादक है, वह वायु है / इस प्रकार वायु का अस्तित्व सिद्ध है, इसमें सन्देह का अवकाश नहीं रहता। [1746] व्यक्त --अवकाश-साधक अनुमान कौन-सा है ? आकाश की सिद्धि भगवान् ---पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन सब का कोई आधार होना चाहिए, क्योंकि वे सब मूर्त हैं। जो मूर्त होता है, उसका आधार अवश्य होता है, जैसे कि पानी का आधार घट है / जो पृथ्वी आदि का प्राधार है, वह प्राकाश है। हे व्यक्त ! इस प्रकार आकाश की सिद्धि भी संगत है, उसके विषय में संशय का कोई कारण नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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