________________ व्यक्त शून्यवाद-निरास 87 कुछ भी दिखाई नहीं देता। इसमें तो प्रत्यक्ष विरोध है। अतः उपर्युक्त हेतु से तुम . सर्वाभाव सिद्ध नहीं कर सकते। ___ व्यक्त-सर्व सपक्ष में हेतु विद्यमान न हो,तदपि यदि वह सर्व विपक्ष से व्यावत हो- अर्थात् किसी भी विपक्ष में विद्यमान न हो तो उसे सद् हेतु कहते हैं / जैसे कि शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रयत्न से उत्पन्न होता है / यह हेतु सभी अनित्य पदार्थों में विद्यमान नहीं है, क्योंकि बिजली, बादल आदि ऐसे अनित्य पदार्थ हैं जो प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रखते। फिर भी यह हेतु किसी भी विपक्ष में नहीं पाया जाता। अर्थात् ऐसा एक भी नित्य पदार्थ नहीं है जो स्वोत्पत्ति में प्रयत्न की अपेक्षा रखता हो / कारण यह है कि नित्य पदार्थ की उत्पत्ति ही नहीं होती, वहाँ प्रयत्न से क्या प्रयोजन ? अतः उक्त हेतु सर्व सपक्षव्यापी न होने पर भी सर्वविपक्ष से व्यावृत्ति के कारण स्वसाध्य अनित्यता को सिद्ध करता है। उसी प्रकार 'परभाग का प्रदर्शन' चाहे स्फटिकादि शून्य पदार्थों में न हो- अर्थात् सर्व सपक्ष में न हो तो भी सपक्ष के अधिकांश भाग में है ही, अतः वह स्वसाध्य की सिद्धि कर सकता है। भगवान् -'परभाग का अदर्शन' इस हेतु में उक्त हेतु के समान व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता / उक्त हेतु का निम्न व्यतिरेक सिद्ध है-'जो अनित्य नहीं होता वह प्रयत्न से उत्पन्न भी नहीं होता, जैसे आकाश / ' किन्तु यहाँ ऐसा व्यतिरेक कैसे सिद्ध करोगे कि 'जहाँ शून्यता नहीं, वहाँ परभाग का प्रदर्शन भी नहीं।' ऐसा व्यतिरेक किसी सद्भूत वस्तु में ही सिद्ध हो सकता है। तुम सर्वाभाव मानते हो, अतः किसी भी सद्भूत वस्तु को स्वीकार नहीं कर सकते। अतः परभाग का प्रदर्शन अहेतु ही रहेगा। [1644-45] . व्यक्त-पर तथा मध्यभाग नहीं है, क्योंकि खर-विषाण के समान वे अप्रत्यक्ष हैं / जब पर तथा मध्यभाग ही नहीं है तो अग्रभाग कहाँ से होगा ? क्योंकि अग्रभाग भी पर-मध्य भाग की अपेक्षा से है। इस प्रकार सर्वशून्यता की सिद्धि होगी। भगवान् --जो पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों का विषय बनता है वह अर्थप्रत्यक्ष कहलाता है। अतः जब तुम यह कहते हो कि 'अप्रत्यक्ष है' तब तुम कम से कम इतना तो मानोगे ही कि इन्द्रियाँ और अर्थ विद्यमान हैं। कारण यह है कि विद्यमान का ही निषेध होता है / उन दोनों को स्वीकार करने से शून्यता की हानि होती है। अतः शायद तुम इन्द्रियों और अर्थ को न मानोगे तथा शून्य को ही स्वीकार करोगे तो भी तुम यह नहीं कह सकते कि 'अप्रत्यक्ष होने से' कारण यह है कि इन्द्रियों और अर्थ के अभाव में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का व्यवहार नहीं हो सकता / [1746] 'अप्रत्यक्ष होने से यह हेतु व्यभिचारी भी है, क्योंकि ऐसा नियम नहीं है कि जो अप्रत्यक्ष हो वह अविद्यमान ही हो। तुम्हारे अपने ही संशय का तथा अन्य ज्ञानों का बहुत से लोग प्रत्यक्ष नहीं करते, फिर भी वे विद्यमान हैं ही। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org