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________________ 86 गणधरवाद [ गणधर आकाश के पूर्वभाग का ग्रहण होने से तत्सम्बन्धी परभाग भी है ही। इसी प्रकार दृश्यवस्तु का भी परभाग है / अग्रभाग का भी एक भाग अग्र है और उसका भी एक भाग अग्र है, इस प्रकार जो सर्वाग्र भाग है वह सूक्ष्म है और अदृश्य है, अतः अग्रभाग का सर्वथा अभाव है, इत्यादि, तुम्हारी विचारणा भी प्रयुक्त है। क्योंकि यहाँ भी यदि परभाग न मानें तो अग्रभाग सम्भव ही न होगा। अतः परभाग अदृश्य होने पर भी मानना ही चाहिए / [1740] फिर यदि सर्वशून्य हो तो अग्रभाग, मध्यभाग तथा परभाग जैसे भेद भी कैसे हो सकते हैं ? व्यक्त—ये भेद परमत की अपेक्षा से किए गए हैं। भगवान् -किन्तु जहाँ सर्वाभाव हो वहाँ स्वमत तथा परमत का भेद भी कैसे हो सकता है ? [1741] यदि शून्यता न मानी जाए तो अग्रभाग, मध्यभाग, परभाग जैसे भेद माने जा सकते हैं और यदि इन भेदों को ही न माना जाए तो खर-विषाण के समान वैसे विकल्प करना व्यर्थ है। [1742] जब सर्वशून्य है तब ऐसा क्योंकर होता है कि अग्रभाग तो दिखाई दे किन्तु परभाग अदृश्य रहे / वस्तुतः कुछ भी दिखाई नहीं देना चाहिए। फिर ग्रहण में विपर्यास क्यों नहीं हो जाता ? अर्थात् परभाग ही दिखाई दे, अग्रभाग नहीं, ऐसा क्यों नहीं होता ? अतः सर्वशून्यता प्रसिद्ध है। [1743] ___यदि ऐसा नियम है कि परभाग दिखाई न देने से वस्तु शून्य है तो भी स्फटिक की सत्ता माननी ही पड़गी, क्यांकि उसका परभाग भी दिखाई देता है। व्यक्त-स्फटिकादि भी वस्तुतः शून्य ही हैं / भगवान्-तो परभाग के प्रदर्शन से वस्तु का अभाव सिद्ध नहीं होगा। परभाग का प्रदर्शन अहेतु हो जायेगा। फिर ऐसा क्यों नहीं कहते कि 'कुछ भी दिखाई नहीं देता', अतः सर्वशून्य है / व्यक्त- हाँ, सच्ची बात यही है कि 'कुछ भी दिखाई नहीं देता', इसीलिए सब का अभाव है—सर्वशून्य है। ___ भगवान् —ऐसी बात मानने पर तुम जिसे पहले स्वीकार कर चुके हो वह बाधित हो जायेगा। पहले तुमने यह कहा था कि परभाग का प्रदर्शन है और अब तुम यह कहते हो कि किसी का भी दर्शन नहीं है / इन दोनों बातों में परस्पर विरोध है। फिर घट-पट आदि बाह्य वस्तु सब को प्रत्यक्ष है, अतः यह कैसे कह सकते हैं कि 1. गा० 1696 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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