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________________ व्यक्त ] शून्यवाद-निरास 85 कुसुम से उत्पन्न होता है ? अतः यदि सब कुछ सामग्रीजन्य मानना हो तो परमाणुरूप सामग्री का अभाव नहीं माना जा सकता। [1738] ____ व्यक्त-किन्तु परभाग का प्रदर्शन ही है तथा निकटस्थ भाग भी सूक्ष्म होने से अदृश्य है, इत्यादि। तर्क द्वारा जो सर्वशून्यता की सिद्धि की थी, उस विषय में आप क्या कहते हैं ? सब कुछ अदृश्य नहीं भगवान् --इस में भी विरोध है। दृश्य वस्तु के अग्र भाग का तुम्हें ग्रहण होता है, फिर भी तुम कहते हो कि 'वह नहीं है / इसमें विरोध नहीं तो और क्या है ? व्यक्त-वस्तुतः सर्वाभाव होने से अग्रभाग का ग्रहण भी भ्रान्ति ही है। भगवान-यदि अग्रभाग का ग्रहण भ्रान्ति मात्र है तो फिर शून्य रूप से समान होने पर भी खर-शृग का अग्रभाग क्यों गृहीत नहीं होता? दोनों का ग्रहण समान रूप से होना चाहिए अथवा नहीं होना चाहिए। समान होने पर यह नहीं हो सकता कि एक का तो ग्रहण हो किन्तु दूसरे का नहीं / अपि च, विपर्यय क्यों नहीं होता? स्तम्भादि के अग्रभाग की जगह खर-शृग का ही अग्रभाग दिखाई दे तथा स्तम्भादि का अग्रभाग दिखाई न दे, यह बात क्यों नहीं होती ? अतः सर्वशून्य स्वीकार नहीं किया जा सकता। [1736] पुनश्च, 'परभाग दिखाई नहीं देता अतः अग्रभाग भी नहीं होना चाहिए', तुम्हारा यह अनुमान कितना विचित्र है ! अग्रभाग तो अबाधित प्रत्यक्ष से सिद्ध है। अतः उक्त अनुमान से अग्नि की उष्णता के समान अग्रभाग बाधित नहीं हो सकता, किन्तु अग्रभाग ग्राहक इस प्रत्यक्ष से ही तुम्हारा अनुमान बाधित हो जाता है। तुम ही बतायो कि अग्रभाग के ग्रहण से परभाग की सिद्धि कैसे नहीं होती ? कारण यह है कि अग्रभाग प्रापेक्षिक है, अतः यदि कोई परभाग हो तो अग्रभाग भी सम्भव है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार अग्रभाग के अस्तित्व के बल पर परभाग का अनुमान सहज है। प्रदर्शन अभाव-साधक नहीं होता पुनश्च, केवल प्रदर्शन से वस्तु का निह्नव (उत्थापन)नहीं किया जा सकता। देशादि से विप्रकृष्ट वस्तुओं के विद्यमान होने पर भी उनका दर्शन नहीं होता, फिर भी उनका प्रभाव नहीं माना जा सकता। सारांश यह है कि परभाग के प्रदर्शन मात्र से अग्रभाग का निषेध नहीं हो सकता। अग्रभाग का दर्शन होने के कारण अदृश्य रूप परभाग का अस्तित्व भी अनुमान से सिद्ध किया जा सकता है। जैसे कि दृश्य वस्तु का परभाग भी है, क्योंकि तत्सम्बद्ध अग्रभाग का ग्रहण होता है। जैसे 1. गाथा 1696 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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