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________________ 84 गणधरवाद [ गणधर ___ यदि सर्वशून्य ही हो तो लोक में जो ब्यवहार की व्यवस्था है वह लुप्त हो जाएगी, भाव तथा अभाव दोनों को समान मानना पड़ेगा। फिर रेत के कणों में तेल क्यों नहीं होगा ? तिलों में ही क्यों होगा? आकाश-कुसुम की सामग्री से ही सब कुछ सिद्ध क्यों नहीं हो जाएगा? ऐसी बात नहीं होती, किन्तु प्रतिनियत कार्य का प्रतिनियत कारण होता है, अतः सर्वशून्यता नहीं माननी चाहिए / [1736] यह भी कोई एकान्त नियम नहीं है कि संसार में जो कुछ है, वह सब सामग्री से ही उत्पन्न होता है। व्यणुकादि स्कन्ध सावयव होने से द्वि-आदि परमाणु सामग्री से उत्पन्न होते हैं, अतः वे सामग्री-जन्य कहलाते हैं। किन्तु निरवयव परमाणु किसी से भी उत्पन्न नहीं होता, फिर उसे सामग्री-जन्य कैसे कहा जा सकता है ? व्यक्त-परमाणु भी सप्रदेश (सावयव) ही है, अतः वह भी सामग्री-जन्य है / भगवान्-किन्तु उस परमाणु के जो अवयव होंगे अथवा उन अवयवों के भी जो अवयव होंगे और इस प्रकार जो अन्तिम निरवयव (अप्रदेशी अवयव) होगा, उसे तो सामग्री द्वारा जन्य नहीं माना जाएगा। अतः यह एकान्त नियम नहीं है कि सभी कुछ सामग्रीजन्य है / व्यक्त–यदि ऐसा कोई परमाणु नहीं मानें तो? भगवान् --परमाणु का सर्वथा अभाव तो माना नहीं जा सकता। कारण यह है कि उसका कार्य दिखाई देता है। अतः कार्थ द्वारा कारण का अनुमान हो सकता है / कहा भी है कि "मूर्त वस्तु द्वारा परमाणु का अनुमान किया जा सकता है। वह परमाणु अप्रदेश है, निरवयव है, अन्त्य कारण है, नित्य है और उस में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध तथा दो स्पर्श हैं / कार्य द्वारा उसका अनुमान हो सकता है।''1 [1737] व्यक्त-किन्तु इस परमाणु का अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि वह सामग्री से उत्पन्न नहीं होता। __ भगवान्-एक ओर तुम कहते हो कि सब कुछ सामग्रीजन्य है और दूसरी ओर कहते हो कि परमाणु नहीं है, यह कथन तो परस्पर विरुद्ध कहलाएगा। जैसे कोई कहे 'सभी वचन झूठे हैं तो उसका यह कथन स्ववचन विरुद्ध है, वैसे तुम्हारे कथन में भी विरोध है। कारण यह है कि यदि परमाणु ही नहीं है तो उससे इतर कोनसी ऐसी सामग्री है जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है ? क्या यह सब आकाश 1. मूर्तरणुरप्रदेशः कारणमन्त्यं भवेत् तथा नित्यः / एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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