________________ व्यक्त ] शून्यवाद-निरास 83 - व्यक्त - वस्तु न हो और फिर भी अविद्याजन्य भ्रान्ति से वह दिखाई दे तो इससे वस्तु की सत्ता सिद्ध नहीं हो जाती। कहा भी है कामवासना, स्वप्न, भय, उन्माद तथा अविद्याजन्य भ्रान्ति से मनुष्य अविद्यमान अर्थ को भी केशोण्डुक के समान देखता है।" भगवान् -- यदि ऐसा ही है तो शून्यता के समानभाव से होने पर भी कछया के बाल की सामग्री किसलिए दिखाई नहीं देती ? वचन की ही सामग्री क्यों दिखाई देती है ? या तो दोनों की दिखाई देनी चाहिए अथवा किसी की भी नहीं / कारण यह है कि तुम्हारे मत में दोनों समान रूप से शून्य हैं / [1732] पुनश्च, छाती, मस्तक, कण्ठ, प्रोष्ठ, तालु, जीभ आदि सामग्री-रूप वक्ता तथा उसका वचन सत् हैं या नहीं ? यदि वे सत् हैं तो सर्वशून्य नहीं कहा जा सकता। य द वक्ता और वचन असत् हैं तो यह बात किसने कही कि 'सब कुछ शून्य है ?' किस ने सुनी ? सर्वशून्य मानने से न कोई वक्ता रहेगा और न कोई श्रोता। [1733] व्यक्त- ठीक तो है, वक्ता भी नहीं है, वचन भी नहीं है, अतः वचनीय पदार्थ भी नहीं है / इसीलिए तो सर्वशून्य सिद्ध होता है / भगवान्–किन्तु मैं तुम से पूछता हूँ कि तुम ने जो यह बात कही कि 'वक्ता, वचन तथा वचनीय का अभाव होने से सर्वशून्य ही है' वह (तुम्हारी बात) सत्य है या मिथ्या ? [1734] - यदि तुम अपने इस वचन को सत्य मानते हो तो वचन का सद्भाव सिद्ध होने से सर्व वस्तु का अभाव सिद्ध नहीं होता। यदि तुम अपने इस वचन को मिथ्या मानते हो तो वह अप्रमाण होने के कारण सर्वशून्यता को सिद्ध करने में असमर्थ है। ___ व्यक्त --चाहे यह वचन शून्यता को सिद्ध न कर सके, फिर भी हम तो शून्यता को मानते ही हैं। भगवान्-तो भी यह प्रश्न हो सकता है कि तुम्हारा यह अभ्युपगम (मान्यता) सत्य है या मिथ्या ? उत्तर से यही फलित होगा कि शून्यता नहीं माननी चाहिए। अपि च, अभ्युपगम भी तभी घटित हो सकता है जब तुम अभ्युपगन्ता (स्वीकार करने वाला) अभ्युपगम (स्वीकार) तथा अभ्युपगमनीय (स्वीकरणीय वस्तु) इन तीनों वस्तुओं का सद्भाव मानो। किन्तु सर्वशून्यता मानने पर अभ्युपगम भी घटित नहीं होता, अतः सर्वशून्यता का अाग्रह छोड़ देना चाहिए। [1735] 1. कामस्वप्नभयोन्मादरविद्योपप्लवात्तथा। पश्यन्त्यसन्तमप्यर्थ जनः केशोण्डुकादिवत् / 2. आकाश में कुछ भी न हो, फिर भी बाल के गुच्छों जैसा दिखाई देता है, उसे केशोण्डुक कहते हैं। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org