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________________ 82 गणघरवाद [ गणधर भगवान्-एकान्तवाद का आश्रय लें तो कुछ भी घटित नहीं होता; किन्तु भनेकान्त का आश्रय लेने से अपेक्षा विशेष से (1) जात की (2) अजात की (3) जाताजात की (4) जायमान की उत्पत्ति घटित हो सकती है और (5) कुछ ऐसे भी पदार्थ हैं जिसकी उत्पत्ति उक्त एक भी प्रकार से नहीं होती। [1728] व्यक्त--- यह कैसे ? उदाहरण देकर समझाने की कृपा करें / भगवान्-१. घट की रूपी के रूप में उत्पत्ति जात की उत्पत्ति है, क्योंकि मिट्टी का पिण्ड पहले भी रूपो था और वह घटावस्था में भी रूपी ही है। 2. आकार की अपेक्षा से घड़े की जो उत्पत्ति है वह अजात की उत्पत्ति है, क्योंकि घटाकार में आने से पूर्व मिट्टी का पिण्ड घटाकार रूप में अजात ही था। 3. रूप तथा आकार दोनों की अपेक्षा से घड़े की उत्पत्ति जाताजात दोनों की उत्पत्ति कहलाती है, क्योंकि घटाकार में आने से पूर्व वह रूपी तो था, परन्तु उसमें प्राकार-विशेष का अभाव था। 4. अतोत-काल के नष्ट हो जाने से तथा अनागत-काल के अनुत्पन्न होने से इन दोनों कालों में क्रिया सम्भव नहीं, अर्थात् क्रिया वर्तमान-काल में ही घटित होती है, अतः जायमान घड़े को उत्पत्ति माननी चाहिए। / 1726] 5. किन्तु, यदि वही घड़ा पूर्वकाल में जात (उत्पन्न) हो तो पुनः उसकी उत्पत्ति असम्भव होने से यह कहा जा सकता है कि जात की उत्पत्ति सर्वथा असम्भव है / पुनश्च, जात-घट भी परपर्यायरूप पट-रूप में तो उत्पन्न नहीं हो सकता, अतः पर-पर्याय की अपेक्षा से भी जात की उत्पत्ति सर्वथा घटित नहीं होती। जात-अजात घट भी अर्थात् स्वपर्याय की अपेक्षा से जात और परपर्याय की अपेक्षा से अजात घट भी पूर्वजात होने से पुनः उसी रूप में उत्पत्ति योग्य नहीं होता, अतः जात-प्रजात की भी सर्वथा उत्पत्ति शक्य नहीं। घट-रूप में जायमान घट भी कभी पट-रूप में उत्पन्न नहीं होता, अत: इस अपेक्षा से जायमान की उत्पत्ति भी घटित नहीं होती। [1730] व्योम आदि नित्य पदार्थों की जातादि प्रकार से सर्वथा उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि वे सर्वदा स्थित हैं। - सारांश यह है कि द्रव्य की उसी रूप में कभी उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु पर्याय की अपेक्षा से उपर्युक्त रीति से वस्तु की जातादि विकल्पों द्वारा भजना है; अर्थात् पर्याय की अपेक्षा से जात की उत्पत्ति घटित भी होती है और नहीं भी होती / [1731] तुमने जो यह विचार किया था कि सब कुछ सामग्री से होता है किन्तु जब सर्वशून्य है तो सामग्री का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, उस विषय में मुझे यह कहना है कि तुम्हारी ऐसी मान्यता सर्वथा प्रत्यक्ष विरुद्ध है, क्योंकि वचनजनक कण्ठ, प्रोष्ठ, तालु आदि सामग्री प्रत्यक्ष है और उस का कार्य वचन भी प्रत्यक्ष है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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