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________________ व्यक्त ] शून्यवाद-निरास 81 उसे अजात कैसे कहते हो ? एक ही वस्तु जात तथा अजात दोनों नहीं हो सकती। इसमें स्ववचन-विरोध है / यदि जात सर्वथा असत् है तो जातादि विकल्प निरर्थक है। यदि असत् पदार्थ के विषय में भी जातादि का विचार हो सकता है तो आकाशकुसुम के विषय में ऐसी विचारणा क्यों नहीं की जाती? वह भी असत् तो है ही, अतः सर्वशून्य नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त मैं पहले यह कह ही चुका हूँ कि यदि सब कुछ शून्य है तो स्वप्न अस्वप्न इत्यादि सब एक समान हो जाना चाहिए अथवा अस्वप्न स्वप्न इत्यादि हो जाना चाहिए, आदि। उसी प्रकार यहाँ भी उन सब दोषों का पुनरावर्तन किया जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि यदि सब कुछ शून्य ही है तो जात और अजात दोनों समान होने चाहिए अथवा अजात जात हो जाना चाहिए, इत्यादि / [1725] अपि च, यदि शून्यवादी का यही मत हो कि घटादि वस्तु किसी भी प्रकार उत्पन्न ही नहीं होती तो मैं यह प्रश्न करता हूँ कि जो घड़ा पहले मिट्टी के पिण्ड में उपलब्ध न था; वह कुम्भकार, दण्ड, चक्रादि सामग्री से उत्पन्न होने के पश्चात् उपलब्ध कैसे हुआ ? इस सामग्री के अभाव में वह उपलब्ध क्यों नहीं होता था ? फिर उत्पत्ति के बाद वह दृष्टिगोचर हुअा, किन्तु तत्पश्चात् मुद्गर अादि से नष्ट हो जाने के बाद कालान्तर में वह दिखाई क्यों नहीं देता? जो वस्तु सर्वथा अजात हो वह खर-शृंग के समान सर्वदा अनुपलब्ध रहती है। अतः जिसकी उपलब्धि कादाचित्क हो, उस वस्तु को जात मानना चाहिए। [1726] पुनश्च, जात-अजात आदि विकल्पों द्वारा 'यह सब कुछ शून्य है' ऐसा ज्ञान और वचन भी अजात सिद्ध किया जा सकता है / फिर भी उस ज्ञान और वचन को किसी न किसी प्रकार जात माने बिना तुम्हारा छुटकारा नहीं हो सकता। उसी प्रकार सब भावों को तुम्हें जात मानना चाहिए, चाहे उनके विषय में जात-अजात आदि विकल्प घटित न होते हों। अतः सब भावों के जात होने के कारण शून्य नहीं माना जा सकता। व्यक्त --उस शून्यता विषयक विज्ञान और वचन को भी मैं जात होने पर भी अजात ही मानता हूँ। भगवान् --ऐसी स्थिति में अजात विज्ञान तथा वचन द्वारा शून्य का प्रकाशन नहीं होगा। फिर शून्यता का प्रकाश उसके बिना कैसे होगा ? अर्थात् यह बात मानने से शून्यता ही प्रसिद्ध हो जायेगी। [1727] व्यक्त -किन्तु नातादि विकल्पों से वस्तु को उत्पत्ति सिद्ध नहीं होती, इस विषय में आप क्या कहते हैं ? 1. गा० 1708 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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