________________ 80 गणधरवाद गणधर व्यक्त--'घट तथा उसके अस्तित्व को अभिन्न मानने पर सब कुछ घट-रूप हो जाएगा और इससे अघट-रूप वस्तु के अभाव में घट भी सम्भव न होगा'-मेरी इस विचारणा का क्या स्पष्टीकरण है ? भगवान् --घटसत्ता (घट का अस्तित्व) घट का धर्म होने के कारण घट से अभिन्न है, तदपि वह पटादि से तो भिन्न है। अतः ‘घट है' अर्थात् घट को अस्तिरूप कहने से ही 'घट ही है, अन्य कुछ भी नहीं' ऐसा नियम कैसे फलित हो सकेगा ? कारण यह है कि घट के समान पटादि को सत्ता पटादि में है ही, अतः घट के समान अघटरूप पटादि सभी पदार्थ भी विद्यमान हैं। इस प्रकार अघट का अस्तित्व होने के कारण तद्भिन्न को घट कहा जा सकता है। [1722] व्यक्त -- यदि घट और अस्तित्व एक ही हों तो यह नियम किसलिए नहीं बन सकता कि 'जो-जो अस्तिरूप है वह सब घट ही है ? अथवा 'घट है यह वचन कहने से वह पटादि समस्त वस्तु रूप कैसे नहीं होगा ? भगवान्-ऐसा इसलिए नहीं होता कि घट का अस्तित्व पटादि के अस्तित्व से भिन्न है / घट का अस्तित्व घट में ही है, पटादि में नहीं। अतः घट और उसके अस्तित्व को अभिन्न मान कर भी उक्त नियम नहीं बन सकता तथा घट को अस्ति कहने से केवल उसका ही अस्तित्व ज्ञात होता है, अतः उसे सर्वात्मक कैसे कहा जा सकता है ? [1723] तात्पर्य यह है कि 'अस्ति' अर्थात् 'है', केवल यह शब्द कहने से जितने पदार्थों में अस्तित्व धर्म है, उन सब का बोध होगा। अर्थात् घट और अघट सब का ज्ञान होगा / किन्तु घट कहने से तो इतना ही बोध होगा कि घट है। कारण यह है कि घट का अस्तित्व घट तक ही सीमित है। जैसे कि वृक्ष कहने से आम्र तथा अन्य नीम आदि वृक्षों का बोध होता है क्योंकि इन सब में वृक्षत्व समान रूपेण है, किन्तु आम्र कहने से तो यही ज्ञान होगा कि वह वृक्ष है क्योंकि जो अवृक्ष होता है उसे अाम्र नहीं कहते। [1724] व्यक्त ---जात-अजाता आदि विकल्पों के विषय में आपका क्या कथन है ? उत्पत्ति सम्भव है ___ भगवान्- इस विषय में मैं तुम से इतना ही पूछना चाहता हूँ कि तुम जात (उत्पन्न) किसे कहते हो ? 'जात, अजात, उभय, जायमान इन चारों प्रकार से उत्पत्ति घटित नहीं होती अर्थात् इन चारों प्रकार से वह अजात है -यदि तुम जात के सम्बन्ध में यह बात कहते हो तो तुन बतायो कि तुम्हारे मत में अजात रूप जात का क्या स्वरूप है? उसका स्वरूप कुछ भी हो, किन्तु यदि वह तुम्हारे लिए सिद्ध है तो तुम्हें सर्व शून्यता की बात ही नहीं करनी चाहिए। यदि वह जात है तो विकल्पों द्वारा तुम 1. गा० 1694. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org