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________________ 79 व्यक्त ] शून्यवाद-निरास किन्तु निश्चय-नय की अपेक्षा से बाह्य कारण निमित्त मात्र हैं, उनका उपयोग होने पर भी सब पदार्थ स्वतःसिद्ध ही माने जाते हैं। कारण यह है कि बाह्य-निमित्तों के होने पर भी खर-विषाण आदि पदार्थ यदि स्वतः सिद्ध न हों तो वे कभी भी सिद्ध नहीं हो सकते / अतः निश्चय-नय के मत से सभी पदार्थ स्वतःसिद्ध ही माने जाते हैं / इस प्रकार व्यवहार तथा निश्चय दोनों नयों द्वारा होने वाला वस्तुदर्शन सम्यक् कहलाता है। [1718] ___ व्यक्त-अस्तित्व तथा घट के एकानेकत्व (भेदाभेद) की युक्ति' का क्या उत्तर है ? सर्वशन्यता का निराकरण भगवान्-जब पहले यह सिद्ध हो जाए कि 'घट है' तब यह पर्याय विषयक विचारणा हो सकती है कि घट तथा उसका धर्म अस्तित्व-ये दोनों एक हैं अथवा अनेक / इससे यह स्पष्टतः सिद्ध है कि घट अथवा अस्तित्व का अभाव नहीं माना जा सकता। जो वस्तु खर-विषाण के समान पहले से ही प्रसिद्ध हो, उसके विषय में भेदाभेद का विचार ही उत्पन्न नहीं होता। यदि घट तथा उसका अस्तित्व अविद्यमान हो और फिर भी उनके विषय में एकानेकत्व की विचारणा हो तो खर-विषाण के सम्बन्ध में भी यह बात होनी चाहिए, ऐसा नहीं होता। अतः मानना होगा कि घटादि के विषय में यह चर्चा इसीलिए होती है कि खर-विषाण के समान उनका सर्वथा अभाव नहीं है। [1716] अपि च, 'घट है' इस पर घट तथा अस्तित्व के विषय में तुमने जो ऊहापोह की, वही ऊहापोह तुम्हारे मत में 'घट शून्य है' इस पर घट तथा शून्यता के विषय में भी की जा सकती है। घट तथा शून्यता में भेद है अथवा अभेद ? यदि शून्यता घट से भिन्न है तो व्यक्त ! तुम ही बतायो कि घट से भिन्न शून्यता कैसी है ? यदि घट तथा शून्यता अभिन्न है तो घट ही मानना चाहिए, क्योंकि वह प्रत्यक्ष द्वारा उपलब्ध होता है / शून्यता-रूप धर्म स्वतन्त्ररूपेण उपलब्ध नहीं होता, अतः उसे मानने की आवश्यकता नहीं रहती। [1720] पुनश्च, तुम्हें जो यह ज्ञान होता है कि 'ये तीनों लोक शून्य हैं' और तुम उक्त वचन का भी जो व्यवहार करते हो, वे दोनों तुम से अभिन्न हैं या भिन्न ? यदि अभेद हो तो वस्तु का अस्तित्व सिद्ध होता है, क्योंकि जैसे शिशपा और वृक्षत्व का एकत्व सद्भुत है वैसे तुम सब का भी है, अतः शून्यता मानी नहीं जा सकती। यदि तुम विज्ञान और वचन से भिन्न हो तो तुम पत्थर के समान अज्ञानी तथा वचन-शून्य बन जानोगे। फिर तुम वादी अर्थात् शून्यवादी कैसे बन सकोगे ? शून्यवाद की सिद्धि भी कैसे होगी ? [1721] 1. गाथा 1693 देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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