________________ 78 गणधरवाद [ गणधर कल्पना करनी ही पड़ती है। उससे शून्यवाद का स्वतः ही निगस हो जाता है। वन्ध्या-पुत्र जैसे अविद्यमान पदार्थों में स्वभाव की कल्पना नहीं की जा सकती, वह विद्यमान पदार्थों में ही करनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में शून्यवाद का निरास स्पष्ट है। [1713] ___ अपेक्षा मानने में मुझे भी आपत्ति नहीं, किन्तु मेरे कथन का भाव इतना ही है कि वस्तु के दीर्घत्वादि का विज्ञान तथा व्यवहार कथंचित् अपेक्षाजन्य होने पर भी वस्तु की सत्ता अपेक्षाजन्य नहीं है। इसी प्रकार रूप, रस आदि अन्य वस्तु धर्म भी आपेक्षिक नहीं हैं। अतः वस्तु के अस्तित्व में अन्य किसी की अपेक्षा न होने के कारण उसे असत् नहीं कहा जा सकता और फलतः सर्व शून्य भी नहीं माना जा सकता। [1714] व्यक्त–वस्तु सत्ता तथा उसके रसादि धर्मों को अन्य-निरपेक्ष क्यों माना जाए? वस्तु की अन्य-निरपेक्षता भगवान् -- यदि वस्तु सत्तादि अन्यनिरपेक्ष न हों तो ह्रस्व पदार्थों का नाश होने पर दीर्घ पदार्थों का भी सर्वथा नाश हो जाना चाहिए, क्योंकि दीर्घ पदार्थों की सत्ता ह्रस्व पदार्थ सापेक्ष है। किन्तु ऐसा नहीं होता / अतः यही फलित होता है कि पदार्थ के ह्रस्व आदि धर्म का ज्ञान और व्यवहार ही पर-सापेक्ष है, उसके सत्ता आदि धर्म पर-सापेक्ष नहीं हैं। वे अन्य-निरपेक्ष ही हैं / अतः यह नियम दूषित है कि 'सब कुछ सापेक्ष होने से शून्य हैं।' फलतः सर्वशून्यता भी प्रसिद्ध ही है। [1715] सर्वशून्यता की सिद्धि के लिए 'अपेक्षा होने से यह हेतु दिया गया है, परन्तु यह विरुद्ध है। क्योंकि यह सर्वशून्यता के स्थान पर वस्तु-सत्ता को ही सिद्ध करता व्यक्त-यह कैसे ? भगवान्-अपेक्षणरूप क्रिया, अपेक्षकरूप कर्ता तथा अपेक्षणीयरूप कम इन तीनों से निरपेक्ष अपेक्षा सम्भव ही नहीं है। अर्थात् जब क्रिया, कर्म और कर्ता तीनों विद्यमान हों तब ही अपेक्षा की सम्भावना है। इससे सर्वशून्यता के स्थान पर वस्तुसत्ता ही सिद्ध होती है / अतः उक्त हेतु विरुद्ध है। [1716] स्वतः परतः प्रादि पदार्थों की सिद्धि ठीक बात तो यह है कि मेघ आदि कुछ पदार्थ अपने कारणभूत द्रव्यों के विशेष परिणाम-रूप हो कर कर्त्ता आदि किसी की भी अपेक्षा न रखते हुए स्वतः सिद्ध कहलाते हैं, घटादि कुछ पदार्थ कुम्भकारादि कर्ता की अपेक्षा रखने से परतः सिद्ध कहलाते हैं, पुरुषादि कुछ पदार्थ माता-पिता आदि पर-पदार्थ तथा स्वीकृत कर्म रूप स्व-पदार्थ की अपेक्षा रखने से उभयतः सिद्ध कहलाते हैं, तथा आकाशादि कुछ पदार्थ नित्य-सिद्ध कहलाते हैं / यह समस्त व्यवहार व्यवहार-नयाश्रित है ऐसा समझना चाहिए। [1717] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org