________________ व्यक्त ] शून्यवाद-निरास है। इसलिए यह बात स्वतः सिद्ध है कि सभी पदार्थ चक्षु आदि सामग्री उपस्थित होने पर अन्य किसी की अपेक्षा रखे बिना स्वज्ञान में प्रतिभासित होते हैं। पुनश्च, बालक जन्म लेने के बाद पहली बार ही आँख खोल कर जो ज्ञान प्राप्त करता है, उसमें उसे किस की अपेक्षा है ? और जो दो पदार्थ दो नेत्रों के समान सदश हों, उनका ज्ञान यदि एक साथ हो तो इसमें भी किसी की अपेक्षा दृष्टिगोचर नहीं होती / अतः मानना चाहिए कि अँगुली आदि पदार्थों का स्वरूप सापेक्ष मात्र नहीं है किन्तु वे स्वविषयक ज्ञानों में अन्य की अपेक्षा के बिना ही स्वरूप से स्वतः प्रतिभासित होते हैं और तदनन्तर अपने प्रतिपक्षी पदार्थ का स्मरण होने से उनमें इस प्रकार का व्यपदेश होता है कि यह अमुक से ह्रस्व है और अमुक से दीर्घ है / अतः पदार्थों को स्वतः सिद्ध मानना ही चाहिए। [1710-11] इसके अतिरिक्त यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि जब सब कुछ शून्यता के कारण समानरूप से असत् है तब प्रदेशिनी आदि ह्रस्व पदार्थों की अपेक्षा से ही मध्यमा अँगुली आदि में दीर्घत्व का व्यवहार क्यों होता है ? दीर्घ पदार्थ की अपेक्षा से ही दीर्घ पदार्थों में दीर्घत्व का व्यवहार क्यों नहीं होता ? इसके विपरीत दीर्घ पदार्थ की अपेक्षा से ही ह्रस्व द्रव्य में ह्रस्वत्व का व्यवहार क्यों होता है ? और ह्रस्व की अपेक्षा से ही हस्व में ह्रस्वत्व की प्रवृत्ति क्यों नहीं होती ? असत् के समानरूप से विद्यमान होने पर भी ह्रस्व आदि पदार्थ की अपेक्षा से ही दीर्घत्व आदि के व्यवहार का क्या कारण है ? यह व्यवहार आकाश-कुसुम आदि की अपेक्षा से क्यों नहीं होता? आकाश-कुसुम की अपेक्षा से ही आकाश-कुसुम में ह्रस्व आदि व्यपदेश और ज्ञान न होने का क्या कारण है ? अतः यह बात माननी होगी कि सर्वशून्य नहीं हैं किन्तु पदार्थ विद्यमान हैं। [1712] और, जब सर्वशून्य है तब अपेक्षा की भी क्या आवश्यकता है ? क्योंकि जैसे घटादि सत्व शून्यता के प्रतिकूल है वैसे अपेक्षा भी शून्यता के प्रतिकूल है। __ व्यक्त ---यह स्वाभाविक बात है कि अपेक्षा के बिना काम नहीं चलता। अर्थात् अपेक्षा से ही हम्व-दीर्घ व्यवहार की प्रवृत्ति होती है, यह स्वभाव है। यह प्रश्न नहीं किया जा सकता कि ऐसा स्वभाव क्यों है ? कहा भी है : ___“अग्नि जलती है किन्तु आकाश नहीं जलता, इसे किससे पूछा जाए1?" अर्थात् ऐसे नियत स्वभाव में किसी से यह प्रश्न या आदेश नहीं किया जा सकता कि इससे विपरीत कार्य क्यों नहीं होता ? शून्यता स्वाभाविक नहीं ___भगवान्-स्वभाव मानने से भी सर्वशून्यता की हानि ही होती है, क्योंकि 'स्व' रूप जो भाव है उसे स्वभाव कहते हैं। अतः 'स्व' तथा 'पर' इन दो भावों की 1. "अग्निर्दहति नाकाशं कोऽत्र पर्यनुयुज्यताम् / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org