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________________ 76 गणधरवाद [ गणधर सर्वसत्ता मात्र सापेक्ष नहीं ___ यह एकान्त भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वस्तु की सत्ता केवल आपेक्षिक ही है / कारण यह है कि स्व-विषयक ज्ञान को उत्पन्न करना आदि जंसी अर्थ-क्रिया भी वस्तु-सत्ता का लक्षण है / अतः ह्रस्व आदि पदार्थ स्व विषयक ज्ञान को उत्पन्न करने के कारण सत् अथवा विद्यमान हैं, इसलिए उन्हें प्रसिद्ध कैसे कहा जाए ? अपि च, यदि स्वयं असत् स्वरूप अँगुली में ह्रस्वत्वादि अन्य अँगुली सापेक्ष हो तो स्वयं असत् रूप ऐसे खर-विषाण में भी अन्य की अपेक्षा से ह्रस्वत्वादि व्यवहार क्यों नहीं होता ? सर्वशून्यता समान होने पर भी एक में ही ह्रस्वत्वादि व्यवहार होता है और दूसरे में वह नहीं होता, इसका क्या कारण है ? अतः मानना पड़ेगा कि अँगुली आदि पदार्थ स्वयं सत् हैं और उनमें अनन्त धर्म होने के कारण भिन्नभिन्न सहकारियों के संविधान से भिन्न-भिन्न धर्म अभिव्यक्त होते हैं तथा उनके विषय में ज्ञान होता है / यदि अँगुली आदि पदार्थ खर-विषाण के समान सर्वथा असत् हों तो उनमें अपेक्षाकृत ह्रस्वत्व, दीर्घत्व आदि का व्यवहार भी नहीं हो सकता और स्वतः, परतः आदि विकल्प भी सम्भव नहीं हो सकते। व्यक्त-शून्यवादी के मत में यह भेद-व्यवहार ही नहीं है कि यह स्व है और यह पर है, किन्तु परवादी वैसा व्यवहार करते हैं अतः उनकी अपेक्षा से स्वतः, परतः आदि विकल्पों की सृष्टि समझनी चाहिए / शून्यवाद में स्व-पर-पक्ष का भेद नहीं घटता भगवान्-किन्तु जहाँ सब कुछ शून्य है वहाँ स्वमत तथा परमत का भेद भी सम्भव नहीं है / यदि स्वमत और परमत का भेद स्वीकार किया जाए तो शून्यवाद ही बाधित हो जाता है। [1706] व्यक्त-मैं यह तो कह ही चुका हूँ कि समस्त व्यवहार सापेक्ष है / भगवान्-तुम ह्रस्व-दीर्घ आदि व्यवहार को सापेक्ष मानते हो, किन्तु इस विषय में मेरा प्रश्न यह है कि ह्रस्व-दीर्घ का ज्ञान युगपद् होता है अथवा क्रमश: ? यदि युगपद् होता है तो जिस समय मध्यम अँगुली के विषय में दीर्घत्व का प्रतिभास हुआ, उसी समय प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व का प्रतिभास हुआ, यह बात माननी होगी। अर्थात् युगपद् पक्ष में एक ज्ञान में दूसरे ज्ञान की किसी भी अपेक्षा का अवकाश न रहने से यह कैसे कहा जायगा कि हस्वत्व-दीर्घत्व आदि व्यवहार सापेक्ष है ? यदि ह्रस्वत्व-दीर्घत्व का ज्ञान क्रमशः स्वीकार करते हो तो भी पहले प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व का ज्ञान हो चुका है, फिर मध्यम अँगुली के दीर्घत्व के ज्ञान की अपेक्षा कहाँ रही ? अतः दोनों पक्षों से यह सिद्ध नहीं होता कि ह्रस्वत्व-दीर्घत्व का ज्ञान व्यवहार सापेक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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