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________________ व्यक्त ] शून्यवाद-निरास 75 प्रौपचारिक है, यह कार्य है और यह कारण है, यह साध्य है और यह साधन है, यह कर्ता है, यह वक्ता है, यह उसका वचन है, यह त्रि-अवयव वाला वाक्य है, यह पंच अवयव वाला वाक्य है, यह वाच्य अर्थात् वचन का अर्थ है, यह स्वपक्ष है तथा वह परपक्ष है- ये सम्पूर्ण व्यवहार यदि संसार में सर्वशन्य के हों तो किस लिए प्रवृत्ति हो ? पुनश्च, पृथ्वी में स्थिरत्व, पानी में द्रवत्व, अग्नि में उष्णत्व, वायु में चलत्व तथा आकाश में अमूर्तत्व ---यह सब कुछ कैसे नियत हो सकता है ? यह नियम भी कैसे बनेगा कि शब्दादि विषय-ग्राह्य हैं तथा श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ ग्राहक हैं ? उक्त सभी बातें एकरूप क्यों नहीं हो जाती ? अर्थात् जैसा स्वप्न वैसा ही अस्वप्न क्यों नहीं माना जाता ? उक्त बातों में असमानता का क्या कारण है ? अथवा स्वप्न की प्रतीति अस्वप्न रूप में हो, ऐसा विपर्यय व्यवहार में क्यों नहीं होता ? तथा यदि सब कुछ शून्य ही है तो फिर सर्वाग्रहण क्यों नहीं होता ? अर्थात् किसी भी वस्तु का ग्रहण या ज्ञान ही न हो। व्यक्त-भ्रान्ति के कारण यह व्यवहार प्रवृत्त होता है कि यह स्वप्न है और यह अस्वप्न / सभी ज्ञान प्रान्त नहीं भगवान्- सभी ज्ञानों को भ्रान्तिमूलक नहीं माना जा सकता। कारण यह है कि वे ज्ञान देश,काल, स्वभाव आदि के कारण नियत हैं। फिर भ्रान्ति स्वयं विद्यमान है या अविद्यमान ? यदि भ्रान्ति को विद्यमान माना जाए तो सर्वशून्यता सिद्ध नहीं होती / यदि उसे अविद्यमान मानें तो भावग्राहक ज्ञानों को अभ्रान्त मानना पड़ेगा। अतः सर्वशून्यता नहीं, अपितु सर्वसत्ता ही माननी चाहिए। फिर तुम यह भेद भी कैसे करोगे कि शून्यता का ज्ञान ही सम्यक है तथा भावसत्ता ग्राही ज्ञान मिथ्या है। तुम्हारे मत में तो सब कुछ शून्य ही है, अतः ऐसा भेद सम्भव ही नहीं है / [1705-8] व्यक्त-स्वतः, परतः, उभयतः तथा अनुभयतः इन चारों प्रकारों से वस्तु की सिद्धि नहीं होती, इसलिए तथा सब सापेक्ष होने के कारण सर्वशून्यता को सिद्ध स्वीकार करना चाहिए। __ भगवान्–यदि सब कुछ शून्य है तो यह बुद्धि भी कैसे उत्पन्न होगी कि यह स्व है और वह पर है। जब स्व-पर आदि विषयक बुद्धि ही नहीं होगी तो स्वतः, परत: इत्यादि विकल्प करके वस्तु की जो परस्पर प्रसिद्धि सिद्ध की जाती है, वह भी कैसे सम्भव होगी? अपि च, एक ओर तो यह बात स्वीकार करना कि वस्तु की सिद्धि ह्रस्वदीर्घ के समान सापेक्ष है और दूसरी ओर यह कहना कि वस्तु की सिद्धि स्व-पर आदि किसी से भी होती नहीं, परस्पर विरुद्ध कथन करना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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