________________ 74 गणधरवाद [ गणधर भगवान्-इस तरह तुम्हे संशय का भी अभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि जब सब का अभाव है तो संशय का भी अभाव सिद्ध होगा / फिर जब तुम्हें भूतों के विषय में सन्देह हो नहीं होगा, तब वे सब विद्यमान ही मानने पड़ेंगे। [1701] व्यक्त ऐसा कोई नियम नहीं है कि यदि सब का अभाव हो तो संशय ही न हो / सोए हुए पुरुष के पास कुछ भी नहीं होता, तदपि वह स्वप्न में संशय करता है कि 'यह गजराज है अथवा पर्वत ?' अतः सब वस्तुओं के शून्य होने पर भी संशय सम्भव है। भगवान्-तुम्हारा कथन ठीक नहीं है, क्योंकि स्वप्न में जो सन्देह होता है वह भी पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण से होता है / यदि सभी वस्तुओं का सर्वथा अभाव ही हो तो स्वप्न में भी संशय न हो। [1702] व्यक्त-क्या निमित्त के बिना स्वप्न नहीं होता ? भगवान-नहीं, निमित्त के बिना कभी भी स्वप्न नहीं होता। व्यक्त-स्वप्न के निमित्त कौन से हैं ? स्वप्न के निमित्त भगवान्-अनुभव में आए हुए जैसे कि स्नान, भोजन, विलेपन आदि पदार्थों के स्मरण में अनुभव निमित्त है / हस्ति आदि पदार्थ दृष्ट होने के कारण स्वप्न के विषय बनते हैं / चिन्ता भी स्वप्न का निमित्त है / जैसे कि अपनी प्रियतमा के सम्बन्ध में चिन्ता हो तो वह स्वप्न में दिखाई देती है। यदि किसी विषय के सम्बन्ध में कुछ सुन रखा हो तो वह भी स्वप्न में आता है। प्रकृति-विकार अर्थात् वात, पित्त, कफ के विकार से भी स्वप्न आते हैं। अनुकूल अथवा प्रतिकूल देवता, सजल प्रदेश, पुण्य तथा पाप भी स्वप्न के निमित्त हैं। किन्तु वस्तु का सर्वथा अभाव कभी भी स्वप्न का निमित्त नहीं बन सकता / अतः स्वप्न भी भावरूप है, इसलिए उसे सर्वशून्य कैसे माना जाए ? [1703] व्यक्त--आप स्वप्न को भावरूप कैसे मानते हैं ? भगवान्-स्वप्न भावरूप है, क्योंकि घट-विज्ञानादि के समान वह भी विज्ञान रूप है। अथवा स्वप्न भावरूप है क्योंकि वह भी उक्त निमित्तों द्वारा उत्पन्न होता है। जैसे घट अपने दण्डादि निमित्तों द्वारा उत्पन्न होने के कारण भावरूप है, वैसे ही स्वप्न भी निमित्तों से उत्पन्न होने के कारण भावरूप है। [1704] सर्वशून्यता में व्यवहाराभाव अपि च, सर्वाभाव हो (सर्वशून्य हो) तो ज्ञानों में यह भेद किस कारण से होता है कि अमुक ज्ञान स्वप्न है और अमुक ज्ञान अस्वप्न, यह सत्य है और यह झूठ; यह गन्धर्व,नगर है (माया नगर है) और यह पाटलिपुत्र है, यह तथ्य है (मुख्य है) और यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org