________________ ध्यक्त ] शून्यवाद-निरास 69 अतः उन में परस्पराश्रय दोष होने के कारण स्वयं प्रसिद्ध वे दोनों एकत्रित हो अन्य किसी की सिद्धि करें, यह सम्भव नहीं है। उक्त तीन प्रकारों से जो सिद्ध न हो वह इन से भिन्न प्रकार से भी सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि अन्य प्रकार अनुभयरूप ही हो सकता है। अर्थात् स्व-पर-उभय से भिन्न प्रकारेण / किन्तु संसार में स्व-पर से भिन्न कोई वस्तु सम्भव ही नहीं; क्योंकि जो कुछ होगा वह स्व या पर होगा / अतः अनुभय से निष्पत्ति मानने का अर्थ होगा कि वस्तु की सिद्धि अहेतुक है, अर्थात् उसका कोई हेतु या कारण नहीं है। किन्तु यह बात असम्भव है। कारण के बिना संसार में कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः अनुभय से भी वस्तु की सिद्धि नहीं होती। . ह्रस्व-दीर्घत्व के व्यवहार के विषय में भी यही बात है / वह व्यवहार भी सापेक्ष ही है। अतः कोई भी वस्तु स्वतः ह्रस्व अथवा दीर्घ नहीं है / प्रदेशिनीअँगूठे के निकटस्थ पहली अँगुली-अँगूठे की अपेक्षा लम्बी है, किन्तु वही मध्यमा अँगुली की अपेक्षा छोटी है। इसलिए वह स्वतः न तो लम्बो है और न छोटी। वह तो अपेक्षा से लम्बी और छोटी है / अतः हम कह सकते हैं कि दीर्घत्व-ह्रस्वत्व स्वतः सिद्ध नहीं हैं। स्वतः सिद्ध न होने के कारण खर-विषाण के समान वे परतः सिद्ध भी नहीं हो सकते / स्व-पर-उभय अथवा अनुभय प्रकार से भी ह्रस्वत्व-दीर्घत्व की सिद्धि सम्भव नहीं है। फलस्वरूप यह स्वीकार करना पड़ेगा कि यह समस्त व्यवहार सापेक्ष है / इसीलिए किसी ने ठीक ही कहा है : "दीर्घ कहलाने वाली वस्तु में दोर्घत्व जैसी कोई चीज नहीं है, हस्व कहलाने वाली वस्तु में भी दीर्घत्व का अभाव है। इन दोनों में भी दीर्घत्व नहीं है, अतः दीर्घत्व नामक वस्तु ही प्रसिद्ध है / प्रसिद्ध शून्य है, अतः उसका अस्तित्व कहाँ माना जा सकता है ?''1 __ "ह्रस्व की अपेक्षा से दीर्घ को सिद्धि कही जाती है और ह्रस्व की सिद्धि भी दीर्घ की अपेक्षा से है। किन्तु निरपेक्ष रूप से किसी की भी सिद्धि नहीं है, अतः यह समस्त सिद्धि व्यवहार के कारण ही है, परमार्थतः कुछ भी नहीं है।'' इस प्रकार संसार में सब कुछ सापेक्ष होने के कारण शून्य ही है / [1692] सर्व शून्यता के समर्थन के लिए तुम्हारा मन निम्न प्रकार से भी ऊहापोह करता है: 1. न दीर्धेऽस्तीह दीर्घत्वं न ह्रस्वे नापि च द्वये / तस्मादसिद्धं शून्यत्वात् सदित्याख्यायते क्व हि ? / / 2. ह्रस्वं प्रतीत्य सिद्धं दीर्घ दीर्घ . तीत्य ह्रस्वमपि / न किंचिदस्ति सिद्धं व्यवहारवशाद् वदन्त्येवम् // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org