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________________ 10 गणधरवाद [गणधर सर्वशन्यता का समर्थन घट तथा अस्तित्व ये दोनों एक ही हैं अर्थात् अभिन्न हैं ? अथवा अनेक हैं अर्थात् भिन्न हैं ? उन दोनों को एक नहीं माना जा सकता क्योंकि सभी पदार्थ एक घट-रूप हो जाएँगे / जो कुछ अस्ति-रूप है वह सब घट-रूप हो, तभी हम यह कह सकेंगे कि घट तथा अस्तित्व एक ही हैं, अन्यथा नहीं / ऐसी स्थिति में घट-भिन्न पटादि किसी भी पदार्थ का अस्तित्व सम्भव नहीं होगा, इसलिए सब कुछ घट-रूप ही स्वीकार करना पड़ेगा। . अथवा घट केवल घट ही नहीं प्रत्युत पट भी है, और इसी प्रकार यह मानना पड़ेगा कि घट संसार की समस्त वस्तु-रूप है। कारण यह है कि संसार की सभी वस्तुओं में अस्तित्व व्याप्त है और घट उस अस्तित्व से अभिन्न है। . अथवा घट और अस्तित्व को एक मानने पर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि जो घट है वहो अस्ति-रूप है / इससे घटेतर सभी पदार्थ अस्तित्व शून्य हो जाएँगे, उन सब का अभाव हो जायगा और संसार में केवल घट का ही अस्तित्व रह जायगा। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए तो घट का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि अघट से व्यावृत्त होने के कारण ही घट 'घट' कहलाता है / यदि संसार में घटेतर-अघट का अस्तित्व ही न हो तो फिर किसकी अपेक्षा से उसे 'घट' कहा जायगा? अतः घट का अस्तित्व भी सिद्ध न होगा और इस प्रकार सर्वशून्य की ही सिद्धि होगी। इस तरह घट तथा अस्तित्व को एक मानने से सर्व-शून्यता को बाधा होने के कारण घट तथा अस्तित्व को यदि अनेक या भिन्न माना जाए, तो भी सर्वशन्यता की आपत्ति स्थिर रहती है। यदि अस्तित्व घट से भिन्न हो तो घट को 'अस्ति' नहीं कहा जा सकता / अर्थात् घट अस्तित्व से शून्य होगा / अस्तित्व शून्य घट खर-विषाण के समान असत् होता है। इस प्रकार सभी पदार्थ अस्तित्व शून्य होने के कारण असत् ही मानने पड़ेंगे-शून्य ही स्वीकार करने होंगे / अपि च, सत् का भाव सत्व अथवा अस्तित्व है / अब यदि वह अपने आधार-रूप घटादि सत पदार्थों से एकान्त भिन्न ही हो तो उसका असत्व उपस्थित हो जाता है। कारण यह है कि प्राधार से अन्य (सर्वथा भिन्न) रूप आधेय धर्म का अस्तित्व ही शक्य नहीं है। इस प्रकार घट तथा अस्तित्व को एक अथवा अनेक मानने में उक्त दोषों की सम्भावना है / अतः वे अवाच्य या सर्वथा शून्य हैं / इसी प्रकार समस्त पदार्थ अनभिलाप्य (अवाच्य) अथवा सर्वथा शून्य ही हैं / (1693) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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