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________________ गणधरवाद [ गणधर तथा फूल भी दिखाए हैं तथापि यह सब मायिक होने के कारण परमार्थ-रूपेण विद्यमान नहीं हैं / इसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थ स्वप्नोपम हैं और मायोपम हैं। इस तरह जहाँ प्रत्यक्ष भूतों के अस्तित्व में भी सन्देह है वहाँ जीव, पुण्य, पाप आदि परोक्ष पदार्थों की तो बात ही क्या है ? अतः तुम्हें भूतादि सभी वस्तुओं की शून्यता ज्ञात होती है और तुम समस्त लोक को मायोपम समझते हो। - अपि च, युक्ति से विचार करने पर भी तुम्हें यही प्रतीति होती है कि यह सब स्वप्न सदृश हैं। [1660-61] समस्त व्यवहार सापेक्ष है हे व्यक्त ! तुम यह मानते हो कि संसार में सकल व्यवहार ह्रस्व-दीर्घ के समान सापेक्ष है / अतः वस्तु की सिद्धि स्वतः, परतः स्व-पर-उभय से अथवा किसी अन्य प्रकार से भी नहीं हो सकती। संसार में सभी कुछ सापेक्ष है, इस बात का स्पष्टीकरण तुम इस प्रकार करते हो:- संसार में जो कुछ है वह सब कार्य अथवा कारण के अन्तर्गत है। कार्य और कारण की सिद्धि परस्पर सापेक्ष है--अर्थात् दोनों एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। यदि संसार में कार्य ही न हो तो किसी को कारण नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार यदि कारण न हो तो किसी को कार्य भी नहीं कहा जा सकता / दूसरे शब्दों में किसी भी पदार्थ के विषय में कार्यत्व का व्यवहार कारणाधीन है और कारणत्व का व्यवहार कार्याधीन है / इस तरह कार्य और कारण दोनों स्वतः सिद्ध नहीं है। अतः संसार में कुछ भी स्वतः सिद्ध नहीं है / यदि कोई भी पदार्थ स्वतः सिद्ध न हो तो वह परतः सिद्ध कैसे हो सकता है ? कारण यह है कि जैसे खर-विषाण स्वतः सिद्ध नहीं तो उसे परतः सिद्ध भी नहीं कह सकते, वैसे ही संसार के सकल पदार्थ यदि स्वतः सिद्ध न हों तो वे परतः सिद्ध भी नहीं हो सकते / स्व-पर-उभय से भी वस्तु की सिद्धि अशक्य है, क्योंकि उक्त प्रकारेण यदि स्व और पर पृथक-पृथक सिद्धि के कारण प्रमाणित न होते हों तो वे दोनों मिल कर भी वस्तु की सिद्धि में असमर्थ रहेंगे। रेत के एक-एक करण में तेल नहीं है, अतः समस्त कणों को मिलाने पर भी तेल की निष्पत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार स्व और पर के अलग-अलग असमर्थ होने पर यदि दोनों मिल भी जाएँ तो भी उन में सिद्धि का सामर्थ्य उत्पन्न नहीं होता / अपि च, स्व-पर-उभय से सिद्धि स्वीकार करने में परस्पराश्रय दोष भी है. क्योंकि जब तक कारण सिद्ध न हो तब तक कार्य नहीं होता और जब तक किसी कार्य की निष्पत्ति न हुई हो तब तक किसी को कारण नहीं कहा जा सकता / इस प्रकार दोनों एक दूसरे के आश्रित हैं, एक की सिद्धि दूसरे के बिना नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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