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________________ चतुर्थ गणधर व्यक्त शून्यवाद-निरास इन सब को दीक्षित हुए सुन कर व्यक्त ने भी विचार किया कि मैं भगवान् के पास जाऊँ, उन्हें नमस्कार करू तथा उनकी सेवा करू। यह विचार कर वह भगवान् के निकट आ पहुँचा / [1687] जन्म-जरा-मरण से मुक्त भगवान् ने उसे नाम व गोत्र से सम्बोधित करते हुए कहा 'व्यक्त भारद्वाज' ! कारण यह है कि भगवान् सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी थे। [1688] भूतों की सत्ता के विषय में संशय भगवान ने उसे बतलाया कि वेद के परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले वाक्यों के श्रवण से तुम्हें यह संशय है कि भूतों का अस्तित्व है या नहीं ? वेद का एक वाक्य यह है कि 'स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरंजसा विज्ञेयः' तुम इसका यह अर्थ समझते हो कि यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्न सदृश ही है, यह ब्रह्मविधि अर्थात् परमार्थ-प्रकार स्पष्ट रूप से जानना चाहिए। इससे तुम यह मानते हो कि संसार में भूतों जैसी कोई वस्तु नहीं है, किन्तु वेद में "द्यावापृथिवी' 'पृथिवी देवता' 'आपो देवता' इत्यादि वाक्य भी हैं जिन से पृथ्वी, जल आदि भूतों का अस्तित्व सिद्ध होता है / अतः तुम्हें सन्देह है कि वस्तुतः भूतों का अस्तित्व है या नहीं ? किन्तु तुम इन वेद-वाक्यों का यथार्थ अर्थ नहीं जानते, इसीलिए ऐसा संशय करते हो। मैं तुम्हें इनका सच्चा अर्थ बतलाऊँगा जिससे तुम्हारे संशय का निवारण हो जाएगा। [1686] पदार्थ मायिक है / उक्त वेद-वाक्य से तुम्हें यह प्रतीत होता है कि ये सब भूत स्वप्न समान है / अर्थात् कोई निर्धन मनुष्य यह स्वप्न देखे कि उसके घर के आंगन में हाथी घोड़े बन्धे हुए हैं और उसका भण्डार मणि व रत्नों से भरपूर है। फिर भी परमार्थतः इनमें से किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं होती। इसी प्रकार मानो किसी इन्द्रजालिक ने मायिक नगर की रचना की है और उसमें भी वस्तुतः अविद्यमान सुवर्ण, मणि, मोती, चांदी के बर्तन आदि पदार्थ दिखाए हैं और उद्यान में फल 1. द्यावापृथिवी सहास्ताम्--तैत्तिरीयब्राह्मण 1-1-3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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