________________ 65 वायुभूति ] जीव-शरीर-चर्चा उसकी उपलब्धि नहीं होती / उसका कार्मरण शरीर परमाणु के सदृश सूक्ष्म है, अतः वह भी अनुपलब्ध रहता है / इसीलिए हमारे शरीर में से निकलते समय अथवा उस में प्रविष्ट होते समय प्रात्मा कार्मण शरीर से युक्त होने पर भी दिखाई नहीं देती। अतः उसका प्रभाव नहीं माना जा सकता / वायुभूति--किन्तु वह सत् ही है, यह बात कैसे ज्ञात हुई ? खरशृग के समान असत् होने के कारण ही वह अनुपलब्ध है, यह बात क्यों स्वीकार न की जाए ? आत्मा का प्रभाव क्यों नहीं ? __ भगवान् --अनेक अनुभवों द्वारा जीव की सत्ता सिद्ध की ही गई है, अतः उसे असत् नहीं माना जा सकता / अतएव यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि उपर्युक्त कारणों में से किसी कारणवशात् विद्यमान जीव की अनुपलब्धि है। [1682-83] वायुभूति--'जीव शरीर से भिन्न है' क्या इस मन्तव्य को वेदवाक्यों का आधार प्राप्त है ? वेद से समर्थन * भगवान्--यदि शरीर ही जीव हो और जीव शरीर से भिन्न न हो तो फिर यह वेद विधान बाधित हो जाता है कि 'स्वर्ग की इच्छा करने वाले व्यक्ति को अग्निहोत्र करना चाहिए।' कारण यह है कि शरीर यहीं जल कर राख हो जाता है, फिर स्वर्ग में कौन जाएगा अपि ? च, दानादि के फल से स्वर्ग की प्राप्ति की लोक प्रसिद्ध मान्यता भी असंगत माननी पड़ेगी। [1684] वायुभूति-ऐसी परिस्थिति में वेद में यह उल्लेख क्यों किया गया है कि 'विज्ञानघन एव एतेभ्य' इत्यादि ? अर्थात् आत्मा भूतों से भिन्न नहीं है। भगवान्-तुम उक्त वाक्यों का यथार्थ अर्थ नहीं जानते, इसीलिए तुम्हें यह प्रतीत होता है कि शरीर ही जीव है, किन्तु मैंने उनका जो वास्तविक अर्थ बताया है, उसके अनुसार तो जीव शरीर से भिन्न ही सिद्ध होता है। मैं इस अनुमान का भी पहले निर्देश कर चुका हूँ कि शरीर रूप में परिणत इस भूतसंघात का कोई कर्ता विद्यमान होना चाहिए, क्योंकि यह संघात सादि प्रतिनियत आकार वाला है, जैसे कि घट / उसका जो कर्ता है वह शरीर से भिन्न जीव है, इत्यादि / पुनश्च 'पात्मा भूतों से भिन्न है' इस मत का समर्थन करने वाले वेदवाक्यों को क्या तुम नहीं जानते ? वेद में लिखा है, “सत्य से, तपश्चर्या से, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org