________________ 63 घायुभूति ] जीव-शरीर-चर्चा ज्ञान के प्रकार भगवान्-- इस आत्मा में मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण तथा मनःपर्ययज्ञानावरण का जब क्षयोपशम होता है तब मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होते हैं तथा केवलज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है / इस प्रकार विचित्र आवरणों के क्षय एवं क्षयोपशम से प्रात्मा में विचित्र ज्ञान उत्पन्न होते हैं। वे पर्याय रूप से क्षणिक होते हैं तथा द्रव्य रूप से कालान्तर-स्थायी नित्य भी होते हैं / [1680] इन सब ज्ञानों की जो सन्तान सामान्य रूप है वह नित्य है, उसका कभी भी व्यवच्छेद नहीं होता; किन्तु सामग्री के अनुसार उन में अनेक प्रकार की विशेषता उत्पन्न होती है / इससे ज्ञान के अनेक अवस्थानुरूप भेद हो जाते हैं- अथवा विशेष बनते हैं। किन्तु ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय से जो केवलज्ञान उत्पन्न होता है उस में भेदों का स्थान नहीं, अतः उसे अविकल्प कहते हैं / वह सदा केवल-रूप, असहायरूप अनन्तकाल तक विद्यमान रहता है और अनन्त वस्तुओं का ग्रहण करता है, अतः उसे अनन्त भी कहते हैं / [1681] वायुभूति-यदि प्रात्मा शरीर से भिन्न है तो वह शरीर में प्रवेश करते समय अथवा वहाँ से बाहर निकलते समय दिखाई क्यों नहीं देती ? विद्यमान होने पर भी अनुपलब्धि के कारण भगवान्—किसी भी वस्तु की अनुपलब्धि दो प्रकार की मानी गई है / एक प्रकार तो यह है कि जो वस्तु खरशृगादि के समान सर्वथा असत् हो वह कभी भी उपलब्ध नहीं होती / दूसरा प्रकार यह है कि वस्तु सत् अथवा विद्यमान होने पर भी निम्न लिखित कारणों से अनुपलब्ध होती है 1. बहुत दूर हो, जैसे मेरु आदि / 2. अति निकट हो, जैसे आँख की भौहें। 3. अति सूक्ष्म हो, जैसे परमाणु / 4. मन के अस्थिर होने पर भी वस्तु का ग्रहण नहीं होता, जैसे ध्यानपूर्वक न चलने वाले को। 5. इन्द्रियों में पटुता न हो, जैसे किंचित् बधिर को। 6. मति की मन्दता के कारण भी गम्भीर अर्थ का ज्ञान नहीं होता। 7. अशक्यता से भी वस्तु की उपलब्धि नहीं होती, जैसे कि अपने कॉन का, मतस्क का अथवा पीठ का दर्शन अशक्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org