________________ 62 गणधरवाद [ गणधर पुनश्च, यदि वह वासना भी क्षणिक है तो उससे भी ज्ञान के समान सर्वक्षणिकता सिद्ध नहीं हो सकती। और यदि वासना स्वयं अक्षणिक है तो तुम्हारी इस प्रतिज्ञा में बाधा आती है कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं। इस प्रकार वासना से भी सभी वस्तुओं की क्षणिकता सिद्ध नहीं हो सकती। [1677] विज्ञान को एकान्त क्षणिक मान कर भी यदि सर्व क्षणिकता का ज्ञान करना हो तो पूर्वोक्त प्रकार से निम्न दोषों की आपत्ति है-- 1. एक साथ अनेक विज्ञानों की उत्पत्ति माननी पड़ेगी और इन सब विज्ञानों की आश्रयभूत एक आत्मा भी स्वीकार करनी पड़ेगी। अथवा 2. यह बात स्वीकार करनी होगी कि एक विज्ञान का एक ही विषय नहीं, प्रत्युत एक ही ज्ञान अनेक विषयों को जान सकता है / अथवा 3. विज्ञान को अवस्थित अक्षणिक मानना होगा, जिससे वह सब पदार्थों को क्रमशः जान सके / इस प्रकार के विज्ञान तथा प्रात्मा में केवल नाम का भेद है, अतः वस्तुतः अक्षणिक विज्ञान नहीं अपितु आत्मा ही माननी पड़ेगी। 4. उक्त प्रात्मा को स्वीकार करने से बौद्ध-सम्मत प्रतीत्य समुत्पादवाद का ही विघात होता है। कारण की अपेक्षा से कार्य की उत्पत्ति होती है, कारण का किसी भी प्रकार से कार्यावस्था में अन्वय नहीं है—प्रतीत्यसमुत्पादवाद का यह रूप है / परन्तु इस वाद को स्वीकार करने से स्मरणादि समस्त व्यवहार का उच्छेद मानना पड़ता है / कारण है कि स्मरणादि व्यवहार उसी अवस्था में सम्भव है जब अतीत संकेतादि का आश्रय रूप कोई पदार्थ स्मरणादि ज्ञान रूप परिणाम को प्राप्त हो, अर्थात् उत्तर काल में भी उसी का अन्वय विद्यमान रहे। अन्यथा उसकी सम्भावना ही नहीं। ऐसी अन्वयी वस्तु ही आत्मा है / अतः स्मरणादि व्यवहार की उपपत्ति के लिए यदि आत्मा को स्वीकार किया जाए तो प्रतीत्यसमुत्पादवाद का विघात हो जाता हैं। विज्ञान को एकान्त-क्षण-विनाशी स्वीकार करने पर उक्त तथा अन्य अनेक दोषों की आपत्ति उपस्थित होती है। किन्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त विज्ञानमय आत्मा को मानने में एक भी दोष नहीं है। ऐसी आत्मा स्वीकार करने से ही समस्त व्यवहार की भी सिद्धि होती है; अतः क्षणिक विज्ञान के स्थान पर शरीर से भिन्न आत्मा ही माननी चाहिए। [1678-76] वायुभूति–उक्त आत्मा के कौन से ज्ञान होते हैं और वे किससे होते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org