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________________ वायुभूति ] जीव-शरीर-चर्चा AL ही सिद्ध नहीं कर सकता, उनकी क्षणिकता की सिद्धि की बात तो अलग ही रह जाती है। . वायुभूति--स्वेतर विज्ञान तथा स्व-विषयेतर वस्तु की सिद्धि भी विज्ञान उसी प्रकार के अनुमान से ही करेगा और कहेगा कि जैसे मेरा अस्तित्व है उसी प्रकार अन्य ज्ञानों का भी अस्तित्व होना चाहिए तथा जैसे मेरा विषय है वैसे ही अन्य ज्ञानों के भी विषय होने चाहिए। तदनन्तर वह यह निश्चय करेगा कि जैसे मैं क्षणिक हूँ और मेरा विषय क्षणिक है, वैसे वे सब ज्ञान और उनके विषय भो क्षणिक होने चाहिए। भगवान् --तुम्हारा यह कथन भी युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि तुम्हारे द्वारा मान्य सर्व वस्तु की क्षणिकता को जानने वाला स्वयं विज्ञान ही अपना जन्म होते ही तत्काल नष्ट हो जाता है; अतः वह अपने ही नाश को तथा अपनी ही क्षणिकता को जानने में असमर्थ है। तब अन्य ज्ञानों, उनके विषयों तथा उन सब की क्षणिकता को जानने में उसकी असमर्थता का कहना ही क्या है। अपि च, वह क्षणिक ज्ञान अपने ही विषय की क्षणिकता को भी नहीं जान सकता, क्योंकि ज्ञान और उसका विषय दोनों एक ही काल में नष्ट हो जाते हैं / यदि वह ज्ञान अपने विषय का विनाश होता देखे और इससे उसकी क्षणिकता का निर्णय करे और बाद में वह स्वयं नष्ट हो तो ही वह अपने विषय की क्षणिकता की प्रतिपत्ति कर सकता है। किन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि बौद्धों के मत में ज्ञान और विषय दोनों एक ही समय में अपने अन्तर क्षणों को उत्पन्न कर नष्ट हो जाते हैं। वस्तु की क्षणिकता को जानने के लिए अन्य स्व-संवेदन अथवा इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी समर्थ नहीं हैं, और उक्त प्रकार का अनुमान भी सिद्ध नहीं होता। अतः बौद्ध मत में सर्व वस्तु की क्षणिकता अज्ञात ही रहती है। [1676] वायुभूति–पूर्व-पूर्व विज्ञानों द्वारा उत्तर-उत्तर विज्ञानों में एक ऐसी वासना उत्पन्न होती है जिससे वह विज्ञान एक ही वस्तु का ग्रहण करते हुए तथा क्षणिक होते हुए भी अन्य विज्ञानों के तथा उनके विषयों के सत्व, क्षणिकतादि धर्मों का ज्ञान कर सकता है / इस प्रकार बौद्धों को सभी पदार्थों की क्षणिकता अज्ञात नहीं रहती, अतः उसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। / भगवान् -- तुम्हारे द्वारा कही गई वासना भी तभी सम्भव है जब वास्य तथा वासक ये दोनों ज्ञान एक ही समय में एक साथ मिलते हों / किन्तु बौद्धों के मतानसार उक्त दोनों ज्ञान जन्मानन्तर ही नष्ट हो जाने के कारण एक ही समय में विद्यमान नहीं हो सकते / यदि वे दोनों एक ही काल में संयुक्त हों तो उन ज्ञानों की क्षणिकता नहीं। अतः सभी ज्ञानों और सभी विषयों की क्षणिकता कैसे सिद्ध हो सकती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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