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________________ वायुभूति ] जीव-शरीर-चर्चा 59 वायुभूति -- पूर्व-पूर्व विज्ञान-क्षण के संस्कार उत्तर-उत्तर विज्ञान-क्षण में संक्रान्त होते हैं, अतः विज्ञानक्षणरूप जीव को क्षणिक स्वीकार करने पर भी स्मरण की सम्भावना है। विज्ञान भी सर्वथा क्षणिक नहीं भगवान् -- यदि विज्ञान-क्षण का सर्वथा निरन्वय नाश माना जाए तो पूर्व-पूर्व विज्ञान-क्षरण से उत्तर-उत्तर विज्ञान-क्षरण सर्वथा भिन्न ही होगे। ऐसी स्थिति में पूर्व विज्ञान द्वारा अनुभूत वस्तु का स्मरण उत्तर विज्ञान में सम्भव नहीं / देवदत्त द्वारा अनुभूत वस्तु का स्मरण यज्ञदत्त को नहीं होता / पूर्वभव का स्मरण तो होता है, अतः जीव को सर्वथा विनष्ट नहीं माना जा सकता / [1671] वायुभूति--जीव रूप विज्ञान को क्षणिक मान कर भी विज्ञान-सन्तति के सामर्थ्य से स्मरण हो सकता है / भगवान् -- यदि ऐसी बात है तो शरीर के नष्ट हो जाने पर भी विज्ञानसन्तति का नाश नहीं हुआ। अतः विज्ञान-सन्तति को शरीर से भिन्न ही मानना चाहिए / यह बात भी स्वीकार करनी पड़ेगी कि विज्ञान-सन्तति भवान्तर में भी संक्रान्त होती है। [1672] पुनश्च, ज्ञान का भी सर्वथा क्षणिक होना सम्भव नहीं है, कारण यह है कि पूर्वोपलब्ध वस्तु का स्मरण होता है। जो क्षणिक होता है उसे भूत (अतीत) का स्मरण जन्मानन्तर विनष्ट के समान सम्भव नहीं है / किन्तु स्मरण होता है, अतः विज्ञान को क्षणिक नहीं माना जा सकता। [1673] जिनका यह मत है कि ज्ञान एक है अर्थात् असहाय है, और वह एक ज्ञान एक ही विषय का ग्रहण करता है तथा वह ज्ञान क्षणिक भी है, उन के मत में इस स्वेष्ट मन्तव्य की कभी भी सिद्धि नहीं हो सकती कि 'इस संसार से जो सत् है, वह सब क्षणिक है'। जब सब पदार्थ सामने उपस्थित हों, तब ही यह ज्ञान उत्पन्न हो सकता है कि 'ये सब पदार्थ क्षणिक हैं। किन्तु सौगत मत में तो एक ज्ञान एक ही पदार्थ को ग्रहण करता है, अतः एक ज्ञान से सब पदार्थों को क्षणिकता का ज्ञान नहीं हो सकता। पुनश्च, ज्ञान के एक पदार्थ का ग्रहण करने पर भी यदि एक ही समय ऐसे अनेक ज्ञान उत्पन्न होते हों और उन सब ज्ञानों का अनुसन्धान करने वाला कोई एक आत्मा विद्यमान हो तो सब पदार्थों के सम्बन्ध में क्षणिकता का ज्ञान सम्भव हो 1. यत् सत् तत् सर्व क्षणिकम् -हेतुबिन्दु-पृ० 44 / / 2. क्षणिकाः सर्वसंस्काराः / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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