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________________ 58 गणधरवाद [ गणधर इसके अतिरिक्त देह भोग्य है, अतः उसका कोई भोक्ता होना चाहिए, जैसे कि भोजन का भोक्ता पुरुष है। देह भो भोग्य है, अतः जो उसका भोक्ता है वही आत्मा है। घट संघातादि रूप है, अतः उसका कोई अर्थी अथवा स्वामी है। इसी प्रकार शरीर भी संघातादि रूप है / अतः इसका कोई स्वामी होना चाहिए। जो स्वामी है वह आत्मा है। [1666] वायुभूति- आपने कर्ता आदि के रूप में प्रात्मा की सिद्धि तो की, किन्तु आपके इन अनुमानों से आपको इष्ट ऐसे अमूर्त आत्मा की सिद्धि नहीं होती; वह तो कुम्भकार आदि के समान मूर्त सिद्ध होती है। अतः आपने इष्ट-साध्य से विरुद्ध की सिद्धि की। भगवान्- प्रस्तुत में संसारी आत्मा की सिद्धि इष्ट है, अतः साध्य से विरुद्ध की सिद्धि नहीं हुई / कारण यह है कि संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। [1670] वायुभूति--जीव चाहे शरीर से भिन्न सिद्ध हो जाए, फिर भी शरीर के समान क्षणिक होने के कारण वह शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है। अतः उसे शरीर से भिन्न सिद्ध करने में क्या लाभ है ? जोव क्षणिक नहीं भगवान्-बौद्ध मत के अनुसरण से ऐसी शंका की उत्पत्ति स्वाभाविक है, किन्तु संसार में सभी पदार्थ क्षणिक नहीं हैं / द्रव्य नित्य है, केवल उसके परिणाम अथवा पर्याय ही अनित्य या क्षणिक हैं। अतः शरीर के साथ जीव का नाश नहीं माना जा सकता / कारण यह है कि पूर्व जन्म का स्मरण करने वाले जीव का उसके पूर्व भव के शरीर का नाश हो जाने पर भी, क्षय नहीं माना जा सकता / अन्यथा पूर्वभव का स्मरण कैसे होगा ? जिस प्रकार बाल्यावस्था का स्मरण करने वाली वद्ध की आत्मा का बाल्यावस्था में सर्वथा नाश नहीं होता, क्योंकि वह बाल्यावस्था का स्मरण करती है, उसी प्रकार जीव पूर्व जन्म का स्मरण करता है। अत: पूर्व जन्म में शरीर के साथ उस का सर्वथा नाश सम्भव नहीं है। अथवा जिस प्रकार विदेश में गया हुआ कोई व्यक्ति स्वदेश की बातों का स्मरण करता है, अतः उसे नष्ट नहीं माना जा सकता; उसी प्रकार पूर्व जन्म का स्मरण करने वाले व्यक्ति का भी सर्वथा नाश स्वीकार नहीं किया जा सकता। 1. यह गाथा भी पहले आई है-1569 2 यह गाथा भी पहले पाई है-1570 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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