________________ 57 वायभूति ] जीव-शरीर-चर्चा युवक का शरीर बाल-शरीर पूर्वक है। इस बाल-शरीर से पहले जो शरीर था वह पूर्वभवीय औदारिक शरीर नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो नष्ट हो चुका था। इसलिए उसके द्वारा प्रस्तुत बाल-शरीर का निर्माण सम्भव नहीं। अतः बाल-शरीर के कारण-रूप कार्मण शरीर को मानना चाहिए। यह कार्मण शरीर अकेला नहीं हो सकता, इसीलिए यह जिसका शरीर है उस शरीरी आत्मा को स्वीकार करना चाहिए / वह आत्मा एक भव से दूसरे भव में जाती है और शरीर से भिन्न भी है / अतः यह बात प्रसिद्ध है कि शरीर ही आत्मा है। [1663] ___ एक और अनुमान भी है—बालक के सुख-दुःखादि अन्य सुख-दुःखादि पूर्वक हैं क्योंकि वे अनुभवात्मक हैं, जैसे कि साम्प्रतिक सुख-दुःख / जिसके सुखदुःखादि अनुभव बालक के सुख-दःख के पूर्व हैं, वह पूर्व भवीय शरीर से पृथक होना चाहिए; क्योंकि पूर्व भवीय शरीर नष्ट हो जाने के कारण बालक के सुख-दुःख का हेतु नहीं बन सकता / उक्त अनुभव गुण रूप हैं, अतः उनके गुणी आत्मा को शरीर से भिन्न मानना चाहिए। [1664] पुनश्च, शरीर तथा कर्म का परस्पर हेतु-हेतुमद्भाव (कार्य-कारण-भाव) होने से बीज तथा अंकुर के समान इन दोनों की सन्तान अनादि है / [1665] इसीलिए शरीर के कार्य रूप तथा कर्म के करण रूप होने से, इन दोनों से भिन्न किसी कर्ता को स्वीकार करना चाहिए। दण्ड और घट का करण-कार्यभाव है, अतः इन दोनों से भिन्न कुम्भकार को कर्ता माना जाता है / [1666] पुनश्च, घट के समान शरीर प्रतिनियत आकार वाला है, अतः उसका कोई कर्ता होना चाहिए। वही आत्मा है / जिस प्रकार दण्डादि करण का अधिष्ठाता कुम्भकार है, उसी प्रकार करण रूप इन्द्रियों का भी कोई अधिष्ठाता होना चाहिए। वही आत्मा है / [1667] इन्द्रिय तथा विषय में आदान-प्रादेय-भाव सम्बन्ध है-अर्थात् इन्द्रियों की सहायता से विषयों का ग्रहण होता है / अत: जिस प्रकार सण्डासी और लोहे का आदान-पादेय सम्बन्ध होने के कारण पादाता (ग्रहण करने वाले) के रूप में लोहकार-अवश्यंभावी है, उसी प्रकार इन्द्रिय और विषय के आदान-पादेय भाव में आत्मा को आदाता मानना चाहिए। [1668] 1. यह गाथा पहले भी आ चुकी है-सं० 1639; इसके बाद भी आएगी-1813 2. यह गाथा भी पहले पा चुकी है---1567; वहाँ यह पाठ है-देहस्सस्थि विधाता' 3. यह गाथा भी पहले पाई है--1568 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org