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________________ 56 गराधरवाद { গল में हेतु असिद्ध कहा जाएगा। किन्तु मैंने जो अनुमान दिया है, उसमें वैसा नहीं, है, अतः हेतु प्रसिद्ध नहीं माना जा सकता / [1661] एक और अनुमान भी है-बालक में जो स्तनपानाभिलाषा दृष्टिगोचर होती है वह अन्य अभिलाषा-पूर्वक है / कारण यह कि वह अनुभव' रूप है / जिस प्रकार साम्प्रतिक अभिलाषा एक अनुभव है, अतः साम्प्रतिक अभिलाषा के पूर्व भी कोई अभिलाषा थी, उसी प्रकार बालक की प्रथम अभिलाषा के पूर्व भी किसी अभिलाषा का अस्तित्व होना चाहिए। अथवा उक्त अनुमान का प्रयोग इस प्रकार भी किया जा सकता है-बालक की प्रथम स्तनपानाभिलाषा अन्य अभिलाषा-पूर्वक है, क्योंकि वह अभिलाषा है / / जो भी अभिलाषा होती है वह अन्य अभिषाला-पूर्वक होती है; जैसे साम्प्रतिक अभिलाषा / बालक के मन में जो प्रथम अभिलाषा होती है वह भी अभिलाषा है, अतः उस से पहिले किसी अभिलाषा का अस्तित्व' होना चाहिए / यह अन्य अभिलाषा अवश्यमेव शरीर से भिन्न होगी, क्योंकि शरीर का परित्याग होने पर भी वह विद्यमान रहती है और बालक की प्रथम स्तनपानाभिलाषा का कारण बनती है / पुनश्च, अभिलाषा भी एक ज्ञान गुण ही है, अतः उसका कोई गुणी होना चाहिए / नष्ट-शरीर गुणी नहीं हो सकता, इसलिए शरीर से भिन्न विद्यमान आत्मा को ही उस अभिलाषा-रूप गुण का स्वतन्त्र आधार स्वीकार करना चाहिए। ___ वायुभूति - 'क्योंकि वह अभिलाषा है आपका यह हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि मोक्ष सम्बन्धी अभिलाषा मोक्षाभिलाषा पूर्वक नहीं होती; तथापि वह अभिलाषा तो है। अतः यह कोई नियम नहीं कि अभिलाषा अभिलाषा-पूर्वक ही होती है। ___ भगवान्-उक्त नियम का तात्पर्य यह नहीं है कि जैसी अभिलाषा हो उसके पूर्व वैसी ही अभिलाषा होनी चाहिए। भाव यह है कि अभिलाषा के पूर्व वैसी अथवा अन्य प्रकार की कोई अभिलाषा अवश्य होनी चाहिए। अर्थात् सामान्य अभिलाषा विवक्षित है, विशेष नहीं। अतः मोक्षाभिलाषा चाहे मोक्षाभिलाषा-पूर्वक न हो, फिर भी उसके पूर्व किसी न किसी प्रकार की अभिलाषा का अस्तित्व अवश्य था, इसमें सन्देह नहीं। अतः उक्त हेतु व्यभिचारी नहीं है / [1662] एक अनुमान यह भी है-बाल-शरीर देहान्त-रपूर्वक है, क्योंकि वह इन्द्रियों से युक्त है / जो इन्द्रियादि से युक्त होता है वह शरीरान्तर-पूर्वक होता है, जैसे कि 1. प्रस्तुत हेतु मूल में नहीं है, टीकाकार ने निर्दिष्ट किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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