________________ वायुभूति ] जीव-शरीर-चर्चा अतीन्द्रिय वस्तु को सिद्धि में प्रमारण पुनश्च, मैंने तुम्हें युक्ति से समझाने का प्रयत्न किया है, किन्तु आत्मा जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय केवल युक्ति से नहीं हो सकता, अतः उस में युक्ति का एकान्त आग्रह निरर्थक है। कहा भी है कि 'अतीन्द्रिय अर्थों के सद्भाव को सिद्ध करने वाले आगम और उपपत्ति ये दोनों पूर्णरूपेण प्रमाण हैं।' [1660] भूत-भिन्न प्रात्मा का साधक अनुमान भूतों से सर्वथा भिन्न आत्मा को सिद्ध करने के लिए एक अन्य अनुमान यह है :-बाल-ज्ञान ज्ञानान्तर-पूर्वक होता है,क्योंकि वह ज्ञान है। जो-जो ज्ञान होता है वह ज्ञानान्तर-पूर्वक होता है, जैसे कि युवक का ज्ञान / बाल-ज्ञान भी अन्य ज्ञानपूर्वक ही होना चाहिए / वह जिस ज्ञान-पूर्वक है-अर्थात् बालक के ज्ञान से पहले जो ज्ञान है वह शरीर से तो भिन्न ही होना चाहिए / कारण यह है कि पूर्वभवीय शरीर का त्याग होने पर भी वह ज्ञान इस भव में बालक के ज्ञान का कारण बनता है। वह ज्ञान गुण होने के कारण निराधार नहीं रह सकता, उसका कोई गुणी होना चाहिए / त्यक्त-शरीर गुणी नहीं हो सकता, अतः आत्मा को ही उस ज्ञान का गुणी स्वीकार करना चाहिए। इससे शरीर ही आत्मा है ऐसा नहीं माना जा सकता, आत्मा को शरीर से भिन्न ही मानना चाहिए। वायुभूति–उक्त अनुमान में आपने यह हेतु दिया है कि 'क्योंकि वह ज्ञान है' प्रतिज्ञा में भी बाल-ज्ञान शब्द में ज्ञान है, अतः यह हेतु प्रतिज्ञात पदार्थ का एक-देश होने के कारण प्रसिद्ध मानना पड़ेगा / कारण यह है कि प्रतिज्ञात पदार्थ स्वयं प्रसिद्ध होता है। भगवान् हेतु रूप में ज्ञान सामान्य का कथन है और प्रतिज्ञा में ज्ञान विशेष का, अतः उक्त हेतु दोष सम्भव नहीं है / वर्णात्मक शब्द अनित्य है, क्योंकि वह शब्द है, मेघ के शब्द के समान / इस अनुमान में जैसे शब्द-सामान्य को हेतु बना कर शब्द-विशेष को प्रतिज्ञा में स्थान दिया है किन्तु हेतु प्रसिद्ध नहीं, वैसे ही प्रस्तुत में भी बाल-विज्ञान रूप विशेष ज्ञान का निर्देश प्रतिज्ञा में है और ज्ञान सामान्य का निर्देश हेतुरूप में है; अतः हेतु को प्रसिद्ध नहीं कह सकते / सामान्य सिद्ध हो और विशेष प्रसिद्ध हो तो सामान्य के बल पर विशेष को भी सिद्ध किया जा सकता है। शब्द अनित्य है, क्योंकि वह शब्द है। इस प्रकार के अनुमान में प्रतिज्ञान्तर्गत शब्द और हेतु-रूप शब्द ये दोनों सामान्य शब्द हैं। इससे ऐसे अनुमान 1. "मागमश्चोपपत्तिश्च संपूर्ण दृष्टिकारणम् / अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org