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________________ गण/धरवोद [ गणधर प्रत्युत उन से भिन्न किसी अन्य पदार्थ को होता है; जैसे कि पाँच झरोखों से देखने वाला देवदत्त उन पाँच झरोखों से भिन्न है। झरोखे का नाश हो जाने पर भी देवदत्त उसके द्वारा देखी गई वस्तु को याद कर सकता है और झरोखे के अस्तित्व में भी यदि देवदत्त का मन दूसरी ओर हो तो वस्तु का परिज्ञान नहीं होता / अतः उपलब्धि-कर्ता झरोखा नहीं किन्तु उससे भिन्न देवदत्त है। इसी प्रकार इन्द्रियों से भिन्न प्रात्मा उपलब्धि-कर्ता है, इन्द्रियाँ उस के उपकरण हैं। ऐसी बात न हो तो अन्ध और बधिर को देखी हुई और सुनी हुई वस्तु का कभी स्मरण नहीं हो। [1658] दूसरा अनुमान भी उपस्थित किया जा सकता है-आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि वह एक इन्द्रिय द्वारा गृहीत की गई वस्तु का दूसरी इन्द्रिय से ग्रहण करता है / अर्थात् वह नेत्रेन्द्रिय से घड़े को देख कर उस का ग्रहण हाथ द्वारा (स्पर्शनेन्द्रिय) द्वारा करता है। जैसे एक खिड़की से देखे गए घट को देवदत्त दूसरी खिड़की से ग्रहण करता है, इसलिए देवदत्त दोनों खिड़कियों से भिन्न है, वैसे ही आत्मा भी इन्द्रियों से भिन्न है / फिर, वस्तु एक इन्द्रिय से ग्रहण की जाती है परन्तु विकार दूसरी इन्द्रिय में होता है, इससे भी मानना पड़ता है कि प्रात्मा इन्द्रियों से भिन्न है। यह तो अपने अनुभव की बात है कि हम अाँखों द्वारा खट्टी वस्तु देखते हैं किन्तु विकार जिह्वा में होता है, उस में पानी छूटता है, इसलिए भी प्रात्मा को इन्द्रियों से भिन्न मानना चाहिए। [1656] अपि च, जीव इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि वह सभी इन्द्रियों द्वारा गृहीत अर्थ का स्मरण कर सकता है / जिस प्रकार अपनी इच्छा से रूप आदि एक-एक गुण के ज्ञाता पाँच पुरुषों से इन पाँचों के रूपादि ज्ञान को जानने वाला पुरुष भिन्न है, उसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों से उपलब्ध अर्थ का स्मरण करने वाला पाँचों इन्द्रियों से भिन्न होना चाहिए। वही आत्मा है। वायुभूति-आपने यह दृष्टान्त दिया है कि पाँच पुरुष रूपादि का ग्रहण करते हैं, इससे यह बात सिद्ध होगी कि पाँच इन्द्रियाँ भी रूपादि का ग्रहण करती हैं, किन्तु यह बात आपको ही अनिष्ट है। कारण यह है कि आप इन्द्रियों को ग्रहण कर्ता नहीं किन्तु ग्रहण में साधन-रूप मानते हैं / इन्द्रियाँ ग्राहक नहीं भगवान्-मैंने दृष्टान्त में एक विशेषण का कथन किया था, उसका तुम्हें ध्यान नहीं रहा, इसीलिए ऐसी शंका हुई है / मैंने कहा था कि पाँच पुरुष अपनी इच्छा से रूपादि को जानते हैं। इन्द्रियों में इच्छा सम्भव नहीं, अतः वे ग्राहक नहीं हो सकतीं / इन्द्रियाँ इपलब्धि में सहकारी हैं, अतः उपचार से यदि तुम उन्हें ग्राहक मानो तो इस में कोई दोष नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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