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________________ वायुभूति] जीव-शरीर-चर्चा 53 बाधक आत्मसाधक अनुमान विद्यमान है। जैसे पानी तथा भूमि के समुदाय-मात्र से हरे घास की उत्पत्ति देख कर कोई कहे कि यह घास पृथ्वी और पानी के समुदाय-मात्र से ही होती है तो उसका यह प्रत्यक्ष बीज-साधक अनुमान से बाधित हो जाता है, वैसे ही चैतन्य को केवल भूतों का धर्म प्रतिपादन करने वाला प्रत्यक्ष भी भूतों से सर्वथा भिन्न ऐसी आत्मा को सिद्ध करने वाले अनुमान से बाधित हो जाता है। अपि च, समुदाय में चैतन्य देखकर तुम यह कहते हो कि प्रत्येक भूत में भी चैतन्य है, किन्तु तुम्हारा यह कथन प्रत्यक्ष-विरुद्ध सिद्ध होता है, क्योंकि प्रत्येक में चैतन्य दिखाई नहीं देता / [1656] वायुभूति-आप कौन से अनुमान से आत्मा को भूतों से भिन्न सिद्ध करते हैं ? भूत-भिन्न प्रात्मा का साधक अनुमान भगवान्-भूत अथवा इन्द्रियों से भिन्न-स्वरूप किसी भी पदार्थ का धर्म चेतना है, क्योंकि भत अथवा इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थ का स्मरण होता है, जैसे कि पाँच झरोखों से उपलब्ध वस्तु का स्मरण होने से झरोखों से भिन्न स्वरूप देवदत्त का धर्म चेतना है / तात्पर्य यह है कि जैसे पाँच झरोखों से क्रमशः देखने वाला देवदत्त एक ही है और वह झरोखों से भिन्न है, क्योंकि वह पाँचों झरोखों द्वारा देखी गई चीजों का स्मरण करता है, वैसे ही पाँचों इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थों का स्मरण करने वाला भी इन्द्रियों से भिन्न कोई पदार्थ होना चाहिए / वही आत्मा है जो भूतों अथवा इन्द्रियों से भिन्न है। जो भूत-समुदाय से भिन्न न हो अर्थात् अभिन्न हो, वह एक होने से अनेक द्वारा उपलब्ध अर्थ का स्मरण भी नहीं कर सकता, जैसे कि किसी एक शब्दादि को ग्रहण करने वाला मानसिक-ज्ञान-विशेष / यह ज्ञान-विशेष अपने ही विषय का ग्रहण करता है किन्तु अन्य विषय का स्मरण नहीं कर सकता / फिर भी यदि इस स्मरणकर्ता को देह अथवा इन्द्रियो से अभिन्न माना जाए तो पाँच झरोखों से देख कर सब का स्मरण करने वाले देवदत्त को भी झरोखे से अभिन्न मानना चाहिए। [1657] वायुभूति- इन्द्रियों के द्वारा नहीं किन्तु इन्द्रियाँ ही स्वयं उपलब्धि की कर्ता हैं / अतः इन्द्रियों से भिन्न आत्मा को मानने की आवश्यकता नहीं है। इन्द्रियाँ प्रात्मा नहीं भगवान्-इन्द्रिय व्यापार के बन्द होने पर भी अथवा इन्द्रियों का नाश हो जाने पर भी इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध वस्तु का स्मरण होता है और इन्द्रिय व्यापार के अस्तित्व में भी अन्यमनस्क को कदाचित् वस्तु की उपलब्धि भी नहीं होती; अतः यह मानना चाहिए कि घटादि पदार्थों का ज्ञान इन्द्रियों को नहीं होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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