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प्रस्तावना
1. गरणधरवाद क्या है ? आवश्यक सूत्र जनश्रुत का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जनश्रुत की सर्वप्रथम प्राकृत गद्य-पाख्या अनुयोगद्वार सूत्र में दृष्टिगोचर होती है और वह आवश्यक सूत्र की व्याख्या के रूप में है। प्राचार्य भद्रबाहु ने जिन अनेक नियुक्तियों की रचना की है उनमें आवश्यक सूत्र की नियुक्ति का विशेष स्थान है। अन्य नियुक्तियों के समान उसमें प्राकृत पद्य में आवश्यक सूत्र की व्याख्या की गई है । आवश्यक सूत्र के छ: अध्ययन हैं जिनमें सामायिक अध्ययन प्रथम है । प्राचार्य जिनभद्र ने. उस सामायिक अध्ययन तथा उस पर उक्त नियुक्ति तक के सीमित भाग की प्राकृत पद्य में अति विस्तृत व्याख्या की है, वह विशेषावश्यक भाष्य के नाम से सुविख्यात है। विशेषावश्यक भाष्य की अनेक व्याख्यानों में प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्र की विस्तृत संस्कृत व्याख्या सर्वाधिक प्रसिद्ध है । प्रस्तुत पुस्तक प्राचार्य जिनभद्र के भाष्य की इस विस्तृत व्याख्या के आधार पर 'गणधरवाद' नामक प्रकरण का भाषान्तर है।
भाषान्तर की शैली
मेरे विचार में प्रस्तुत ग्रन्थ को केवल भाषान्तर न समझ कर रूपान्तर समझना अधिक उपयुक्त होगा। प्रकरण के नाम के अनुसार इसमें उस वाद का समावेश है जो भगवान् महावीर और ब्राह्मण-पण्डितों में हुमा था । इस वाद के पश्चात् ये ब्राह्मण पण्डित भगवान् से प्रभावित हुए, उनके मुख्य शिष्य बने और गणधर कहलाए। इसीलिए इस वाद का नाम 'गणधरवाद' है । अतः भाषान्तर की शैली संवादात्मक रखी गई है । संवाद को अनुकूल रूप प्रदान करने के लिए मलधारी की व्याख्या के वाक्यों का भाषान्तर के साथ-साथ रूपान्तर भी करना पड़ा है। अत: यह भाषान्तर संस्कृत से गुजराती भाषा में केवल अनुवाद नहीं है प्रत्युत इस व्याख्या को संवादात्मक रूप में उपस्थित करने का एक प्रयत्न है । इसी कारण मैंने इसे रूपान्तर कहा है ।
संस्कृत भाषा की यह विशेषता है कि उसमें ऐसी परम्परा विद्यमान है जिसके आधार पर गम्भीर दार्शनिक विषयों की चर्चा अति संक्षिप्त शैली में हो सकती है और फिर भी विषय की अस्पष्टता लेशमात्र नहीं रहती। गुजराती भाषा की तथा संस्कृत भाषा की शैली में भी भेद है। अत: भाषान्तर को सुवाच्य बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी शैली गुजराती हो। केवल शब्दशः अनुवाद करने से भावों के अस्पष्ट रहने की अधिक संभावना रहती है । यह भी संभव है कि भाषान्तर गुजराती में हो और उस में गुजरातीपन भी दृग्गोचर न हो। इन कारणों से भाषान्तरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह केवल शब्दों का नहीं अपितु शब्दों और भावों को मिलाकर संस्कृत भाषा से गुजराती भाषा में रूपान्तर करे । इस भाषान्तर में इसी नीति के अनुसार कार्य करने का विनम्न प्रयास किया है । मुझे इसमें कहां तक सफलता मिली, इस बात का निर्णय तो पाठक ही कर सकते हैं ।
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