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गणधरवाद
इस प्रयत्न में मेरा यह ध्येय रहा है कि सामान्य संस्कृत को जानने वाला परन्तु दर्शन-शास्त्र से अनभिज्ञ पाठक भी गुजराती पढ़ने के बाद यदि संस्कृत को सामने रखे तो वह सरलता पूर्वक मूल ग्रन्थ में प्रवेश कर सके । अतः मूल संस्कृत की कोई भी आवश्यक बात छोड़ी नहीं गई और क्रम भी मूल ग्रन्थ का ही रखा गया है । विषय का स्पष्टीकरण करने के लिए भाषा की सरलता की ओर विशेष ध्यान दिया गया है किंतु मैंने उसमें कोई नई बात नहीं जोड़ी, यदि ऐसा किया जाता तो यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ बन जाता, भाषान्तर अथवा रूपान्तर नहीं रहता। जहां कोई नवीन बात लिखने की थी, उसे मैंने बाद में टिप्पणी में लिखना उचित समझा है।
प्रावश्यक सूत्र तथा उसका प्रथम अध्ययन
समस्त जैनागम साहित्य में आवश्यक सूत्र ही एक ऐसा ग्रन्थ है जिसका प्रचार अपने रचनाकाल से लेकर उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है। आज भी जितना साहित्य इस सूत्र के संबंध में प्रकाशित होता है, उतना अन्य किसी भी सूत्र के संबंध में नहीं। इसका कारण यह है कि इसमें श्रमण और श्रावक के दैनिक कर्तव्य-प्रावश्यक क्रिया का निरूपण है, अतः प्रत्येक श्रमण और श्रावक को इसकी प्रतिदिन आवश्यकता रहती है । इस ग्रन्थ का विषय धार्मिक पुरुषों के जीवन से सम्बद्ध होने के कारण उसके जीवन में प्रोतप्रोत हो गया है । इसलिए इस ग्रन्थ की टीकानों और उपटीकाओं के अतिरिक्त इसके एक-एक विषय को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रन्थों की रचना हई है। ये स्वतंत्र ग्रन्थ भी टीकानों तथा उपटीकाओं से अलंकृत हए हैं। भाषा की दृष्टि से देखा जाए तो इस ग्रन्थ की प्राचीन प्राकृत और संस्कृत टीकानों से प्रारम्भ कर आधुनिक गुजराती व हिन्दी भाषा में उपलब्ध साहित्य इस बात का प्रमाण है कि प्रत्येक शताब्दी में आवश्यक सूत्र पर कुछ न कुछ लिखा गया है। जैनागमों के वर्गीकरण में प्राचीन पद्धति के अनुसार अंग-बाह्य के एक वर्ग में आवश्यक-सूत्र तथा दूसरे वर्ग में आवश्यकेतर सूत्रों को रखा गया है । इससे भी इस सूत्र का महत्व प्रकट होता है ।
आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन सामायिक के विषय में है। प्राचार्य भद्रबाह के मतानुसार यह सामायिक समग्र श्रुतज्ञान के आदि में है। श्रुतज्ञान का एक मात्र सार चारित्र है और चारित्र का सार निर्वाण हैं। इस प्रकार सामायिक की चर्चा करने वाले आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन का मोक्ष से सीधा सम्बन्ध है । प्रागम में जहां भगवान् महावीर के श्रमणों के श्रुतज्ञान के अध्ययन का वर्णन है वहां सर्वत्र उन के अध्ययन में सामायिक को प्रथम स्थान दिया गया है। अन्य अंग-ग्रथों का स्थान उसके उपरान्त है । अतः केवल ज्ञान की दृष्टि से ही नहीं, परन्तु आचार की दृष्टि से भी सामायिक का स्थान सर्वप्रथम है।
1. नन्दी सूत्र सू० 43 2. सामाइयमाईयं सुयनाणं जाव बिन्दुसाराप्रो ।
तस्स विसारो चरणं सारो चरणस्स निव्वाणं । प्राव०नि० 93 3. भगवती 2.1
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