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________________ 51 वायुभूति ] जीव-शरीर-चर्चा वायुभूति-प्रापने यह नियम बताया है कि जो प्रत्येक अवस्था में अनुपलब्ध होता है वह समुदायावस्था में भी अनुपलब्ध होता है। किन्तु यह नियम व्यभिचारी है, क्योंकि मद्य के अंगों में प्रत्येकावस्था में मद की उपलब्धि नहीं होती। किन्तु समुदायवस्था में मद की उत्पत्ति हो जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक भूत में चैतन्य की अनुपलब्धि होने पर भी वह भूत-समुदाय से उत्पन्न हो सकता है। भूत से भिन्न कारण मानने की आवश्यकता नहीं रहती। जो प्रत्येक में नहीं होता, वह समुदाय में नहीं होता भगवान् -- तुम्हारा यह कहना अयुक्त है कि मद्य के अंगों में प्रत्येकावस्था में मद अनुपलब्ध है / वस्तुतः धातकी के फूल, गुड़ आदि मद्य के प्रत्येक अंग में मद की न्यून या कुछ अधिक मात्रा विद्यमान है ही, इसीलिए वह समुदाय में उत्पन्न होती है / जो प्रत्येक में न हो, वह समुदाय में भी सम्भव नहीं। [1652] वायुभूति-भूतों में भी मद्य के अंगों के समान प्रत्येक में भी चैतन्य की मात्रा है, अतः वह समुदाय में भी उत्पन्न होती है, इस बात को मानने में क्या आपत्ति है ? प्रत्येक भूत में चैतन्य नहीं भगवान्–यह बात मानी नहीं जा सकती, क्योंकि मद्य के प्रत्येक अंग में मद-शक्ति दिखाई देती है; जैसे कि धातकी के फूल में चित्त भ्रम करने की, गुड़, अंगूर, गन्ने के रस आदि में तृप्त करने की और पानी में प्यास शान्त करने की शक्ति है / यदि प्रत्येक भूत में चैतन्य-शक्ति का सद्भाव हो तो वह समुदाय में भी प्रकट हो, किन्तु प्रत्येक भूत में वैसी कोई शक्ति मद्यांगो के समान प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि भूत-समुदाय-मात्र से चैतन्य उत्पन्न होता है / [1653] ___ वायुभूति-मद्य के प्रत्येक अंग में भी यदि मद-शक्ति न मानें तो क्या दोष है ? भगवान्–यदि भूतों में चैतन्य के समान मद्य के भी प्रत्येक अंग में मदशक्ति न हो तो फिर यह नियम नहीं बन सकता कि मद्य के धातकी के फूल आदि तो कारण हैं और अन्य पदार्थ उसके कारण नहीं हैं। न ही यह व्यवस्था स्थिर रह सकती है कि इस कारण समुदाय से मद उत्पन्न होता है और इससे नहीं। कोई भी राख, पत्थर, छाणे आदि वस्तुएँ भी मद का कारण बन जाएँगो और किन्हीं चीजों के समुदाय से भी मद की उत्पति हो जाएगी, किन्तु ऐसा नहीं होता। अतः मद के प्रत्येक अंग में मद-शक्ति माननी ही चाहिए / [1654] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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