________________ गणधरवाद [ गणधर नहीं देती, फिर भी जब इन सब का समुदाय बन जाता है तब उन में से मद-शक्ति की उत्पत्ति साक्षात् दिखाई देती है, उसी प्रकार यद्यपि पृथ्वी आदि किसी भी भूत में चैतन्य-शक्ति दिखाई नहीं देती, तथापि जब उन का समुदाय होता है तब चैतन्य का प्रादुर्भाव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो जाता है / [1650] पुनश्च, जिस प्रकार मद के पृथक्-पृथक अवयवों में मद-शक्ति अदृष्ट है, किन्तु उनका समुदाय होने पर वह उत्पन्न हो जाती है और कुछ समय तक स्थिर रह कर कालान्तर में विनाश की सामग्री उपस्थित होने पर विनष्ट भी हो जाती है; उसी प्रकार प्रत्येक भूत में चैतन्य अदृष्ट है किन्तु उनका समुदाय होने पर चैतन्य की उत्पत्ति होती है और कुछ समय तक विद्यमान रहने के बाद कालान्तर में विनाश की सामग्री का आविर्भाव होने पर चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि, चैतन्य भूतों का धर्म है / धर्म और धर्मी का तो अभेद है, क्योंकि दोनों का भेद मानने पर घट-पट के समान धर्म-धर्मी भाव सम्भव नहीं होगा, अतः भूत-समुदाय रूप शरीर का धर्म यदि चैतन्य (जीव) हो तो शरीर ही (जीव) है, यह मान्यता फलित होती है; किन्तु वेद के 'न ह वै सशरीरस्य' इत्यादि वाक्यों से यह ज्ञात होता है कि जीव शरीर से भिन्न है। अतः तुम्हें संशय है कि जीव शरीर से भिन्न है या अभिन्न ? [1651] वायुभूति-आपने मेरा संशय ठीक ही बताया है / कृपया उसका निवारण करें। संशय का निराकरण भगवान्-तुम्हारा यह संशय अयुक्त है, क्योंकि चैतन्य भूतों के समुदाय मात्र से उत्पन्न नहीं हो सकता / वह स्वतन्त्र है, क्योंकि प्रत्येक भूत में उसकी सत्ता नहीं है। जिस वस्तु का प्रत्येक अवयव में अभाव हो, वह समुदाय से भी उत्पन्न नहीं हो सकती। जैसे रेत के प्रत्येक कण में तेल नहीं है, इसलिए रेत के समुदाय से भी तेल नहीं निकलता / इसी प्रकार पृथ्वी आदि अलग-अलग भूतों में चैतन्य न होने के कारण भूत-समुदाय से भी चैतन्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है / जो कुछ समुदाय से उत्पन्न हो सकता है, वह प्रत्येक में सर्वथा अनुपलब्ध नहीं हो सकता। यदि तिलों के समुदाय से तेल की प्राप्ति होती है तो प्रत्येक तिल में भी वह उपलब्ध है। किन्तु चेतना प्रत्येक भूत में उपलब्ध नहीं होती, अतः उसे भूत-समुदाय से प्रादुर्भुत नहीं माना जा सकता / परन्तु अर्थापत्ति से यह बात माननी चाहिए कि भूतसमुदाय से सर्वथा भिन्न कोई ऐसा कारण उस समुदाय से सम्बद्ध है जिसके कारण उस समुदाय द्वारा चेतना आविर्भूत होती है। इसीलिए जीव देह से भिन्न है। 1. गाथा 1553, 1591 देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.