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________________ तृतीय गणधर वायुभूति जीव-शरीर-चर्चा इन्द्रभूति तथा अग्निभूति इन दोनों के दीक्षित होने का समाचार सुन कर तीसरे वायुभूति उपाध्याय ने मन में यह विचार किया कि, मैं जाऊँ, वंदन करू और वन्दना करके पर्युपासना करू। ऐसा विचार कर उसने भगवान् की ओर जाने के लिए प्रस्थान किया। [1645] उसने यह भी सोचा कि इन्द्रभूति व अग्निभूति जिनके अभी-अभी शिष्य हुए हैं, ऐसे तीन लोक से वन्दित महाभाग्यशाली भगवान् के पास अवश्य जाना चाहिए। मैं उनके पास जाऊँ, उनकी वन्दना व उपासना आदि द्वारा निष्पाप बनू और उनसे अपने संशय कर कथन का संशय-रहित बनू / इस प्रकार विचार करता हुआ वह इष्ट-स्थान पर जा पहुंचा। [1646-47] उसे आया हुआ देख कर जन्म-जरा-मरण से रहित भगवान् ने सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होने के कारण उसके नाम व गोत्र का उच्चारण करते हुए उसका स्वागत किया और कहा-'वायुभूति गौतम !' / [1648] जीव व शरीर एक ही है, यह संशय किन्तु भगवान् के उसे इस प्रकार स्पष्ट बुलाने से, उनकी आन्तरिक ज्ञानशक्ति से, शारीरिक सौन्दर्य से तथा समवसरण की शोभारूप बाह्य शक्ति से वायुभूति को उलटा संकोच हुआ, अतः वह भगवान् के सम्मुख अपना संशय कह नहीं सका। वह चकित हो कर मूक-सा खड़ा रहा। उसकी दृविधा को दूर करने के लिए भगवान् ने ही स्वयं उसे कहा-आयुष्मन् वायुभूति ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि जीव और शरीर एक ही हैं अथवा दोनों भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी तुम मुझे पूछ नहीं रहे हो। किन्तु तुम्हें वेद-पदों का सच्चा अर्थ ज्ञात नहीं है, इसीलिए ऐसा संशय रहा करता है / उन पदों का अर्थ यह है / [1646] वेद-पदों का सम्यग् अर्थ बताने से पहले मैं तुम्हारी शंका को ही स्पष्ट कर दूं। __ तुम यह बात मानते हो कि पृथ्वी, जल, तेज, और वायु इन चार भूतों के समुदाय से चेतना उत्पन्न होती है / जिस प्रकार मद्य के प्रत्येक पृथक्-पृथक् अंग (अवयव) जैसे कि धातकी के फूल, गुड़, पानी इन में किसी में भी मद-शक्ति दिखाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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