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________________ 48 गणधरवाद [ गणधर किया जाए तो वह निन्द्य है। अतः इस प्रकार के वाक्य निन्दा-अर्थवाद के द्योतक हैं। __'द्वादश मासा संवत्सरः'1 'अग्निहष्णः'2 'अग्निहिमस्य भेषजम्' इत्यादि वाक्य प्रसिद्ध अर्थ के ही बोधक होने के कारण अनुवाद-प्रधान हैं। इस प्रकार सभी वेद-वाक्यों का एक ही तात्पर्य नहीं माना जा सकता / अतः उक्त 'पुरुष एवेदं' इत्यादि वाक्य का तात्पर्य स्तुति-परक ही मानना चाहिए / . 'विज्ञान एवैतेभ्यः' का भी वास्तविक तात्पर्य यह है कि विज्ञानघन अर्थात् पुरुष (आत्मा) भूतों से भिन्न है / पुरुष कर्ता है और शरीरादि उसका कार्य है, यह मैं बता चुका हूँ। कर्ता व कार्य से भिन्न करण का अनुमान सरलता से किया जा सकता है। जहाँ कर्तृ-कार्य-भाव हो वहा करण भी होना चाहिए। लुहार व लोहे के गोले में कर्तृकार्य-भाव है और संडासी करण है। आत्मा के शरीर-कार्य में भी करण होना चाहिये, वही कर्म है। कर्म साक्षात प्रतिपादक वाक्य वेद में हैं यह तुम भी मानते हो, जैसे कि 'पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा' अतः कर्म को प्रमाण सिद्ध ही मानना चाहिए / [1643] इस प्रकार जरा-मरण से रहित भगवान् ने जब उस के संशय का निराकरण किया, तब अग्निभूति ने अपने 500 शिष्यों सहित श्रमण-दीक्षा लेली। [1644] / 2. बारह महीने की वर्ष कहलाता है, यह उक्त वाक्य का अर्थ है। यह तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.1.4 का है। 3. अर्थात् अग्नि गरम है, वही 1.1.4 4. अर्थात् शीत की औषधि अग्नि है, वही 1.1.4 5. गाथा 1611 की व्याख्या देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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