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________________ 47 अग्निभूति] कर्म-प्रस्तित्व-चर्चा . सभी वेद-वाक्यों का तात्पर्य समान नहीं होता। कुछ वेद-वाक्य विधिवाद का प्रतिपादन करते हैं अर्थात् कर्त्तव्य का बोध कराते हैं; कुछ वेद-वाक्य अर्थवाद प्रधान होते हैं. अर्थात् इष्ट की स्तुति कर उसमें प्रवृत्ति कराने वाले और अनिष्ट की निन्दा कर उससे निवृत्ति कराने वाले होते हैं; तथा कुछ वेद-वाक्य अनुवादपरक अर्थात् अन्यत्र प्रतिपादित वस्तु का पुनः कथन करने वाले होते हैं, उनमें कोई अपूर्व-प्रतिपादन नहीं होता। 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः'1-स्वर्ग का इच्छुक अग्नि होत्र करे--- इस वाक्य का अर्थ विधि-आज्ञा-परक है, यह बात स्पष्ट है। उक्त 'पुरष एवेदं सर्वां' तथा इस प्रकार के अन्य वावय जैसे कि, 'स सर्वविद् यस्यैष महिमा भुवि दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्यष व्योम्नि आत्मा सुप्रतिष्ठितस्तमक्षरं वेदयते यस्त सर्वज्ञः सर्ववित् सर्वमेवाविवेशेति' तथा 'एकया पूर्णयाहूत्या सर्वान् कामानवाप्नोति'3 इत्यादि-इन सब में स्तुतिरूप अर्थवाद को ही प्रधान अर्थ मानना चाहिए। ___ अग्निभूति—'एकया पूर्णया' इत्यादि उक्त वाक्य को विधिवाद-परक क्यों न माना जाए ? उसे स्तुति-परक मानने का क्या कारण है ? भगवान् -यदि एक ही पूर्ण प्राति से सभी इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति हो जानी हो तो फिर वेद में जो नाना प्रकार की विधियाँ बताई गई हैं वे सब व्यर्थ सिद्ध हों, अतः 'एकया पूर्णया' इत्यादि वाक्य स्तुत्यर्थवाद-रूप ही मानने चाहिए। पुनश्च, 'एष वः प्रथमो यज्ञो योऽग्निष्टोमः योऽनेनानिष्ट्वाऽन्येन यजते सगर्तमभ्यपतत ' इस वाक्य का अभिप्राय यह है कि यदि अग्निष्टोम से पहले पशुयज्ञ 1. गाथा 1553 व 1592 देखें। 2. ऊपर जो पाठ दिया गया है, वह दो भागों में भिन्न-भिन्न उपनिषदों में कुछ परिवर्तित रूप में उपलब्ध होता है / जैसे कि :'यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्यैष महिमा भुवि / दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्यष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः / ' मुण्डक० 2.27 सदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्प स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति' / प्रश्नोपनिषत् 4.10 दोनों पाठों का अर्थ क्रमशः निम्न प्रकारेण सम्भव है :'जो सर्वज्ञ तथा सर्ववेदी है, जिसकी यह महिमा पृथ्वी तथा दिच्य ब्रह्मलोक में है वह आत्मा आकाश में प्रतिष्ठित है।' 'हे सौम्य ! जो उस अक्षर तत्व को जानता है वह सर्वज्ञ है तथा सर्वत्र व्याप्त है।' 3. यह वाक्य तैत्तिरीय ब्राह्मण का है-3.8.10.5; अर्थात् एक पूर्णाहूति से समस्त इष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है। 4. ताण्ड्य महाब्राह्मण 16.1.2 'अग्निष्टोम प्रथम यज्ञ है / जो इस यज्ञ को बिना किए दूसरा यज्ञ करता है, वह खड्डे में पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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