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________________ गणधरवाद [ गणधर उसी वस्तु की सिद्धि की है / अतः स्वभाववादियों का यह कथन कि कर्म से कुछ नहीं होता, सब कुछ स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, असंगत है। अग्निभूति--यह सब ठीक है, किन्तु पहले कहे गए वेद-वाक्य का प्राप क्या स्पष्टीकरण करते हैं ? वेद-वाक्य का समन्वय भगवान्'पुरुष एवेदं ग्नि सर्वां यद् भूतं, य च भाव्यं, उतामृत स्वस्येशानः / यदन्नेनाति रोहति, यदेजति, यद् नैजति, यद् दूरे, यद् अन्तिके, यदन्तरस्य सर्वस्य, यत् सर्वस्यास्य वाह्यतः' / / इन वेद-वाक्यों का अर्थ तुम इस प्रकार करते हो-पुरुष अर्थात् आत्मा ही है। इसमें 'यत्' (जो) शब्द का तात्पर्य कर्म, ईश्वर, प्रकृति इन सब तत्वों का निषेध है, ऐसा तुम समझते हो / अतः उक्त वाक्यों का अर्थ होगा कि इस संसार में चेतन-अचेतन रूप जो कुछ दिखाई देता है वह सब, जो भूत काल में विद्यमान था-अर्थात् मुक्त की अपेक्षा से जो संसार था वह, जो भावी हैं-अर्थात् संसार की अपेक्षा से जो मुक्ति है, दूसरे शब्दों में संसार और मुक्ति भी, तथा जो अमृत अथवा अमरण-भाव या मोक्ष का प्रभु है वह भी, जो अन्न से वृद्धि प्राप्त करता है, जो चलता है-अर्थात् पशु आदि, जो अचल है-पर्वतादि, जो दूर है –मेरु आदि, जो निकट है, जो इन चेतन-अचेतन पदार्थों के मध्य में है, जो इन सब पदार्थों से बाह्य है, वह सब केवल पुरुष है, आत्मा है। इस अर्थ के अनुसार तुम्हारी यह मान्यता है कि वेद पुरुष से भिन्न कर्म का अस्तित्व सिद्ध नहीं करते। पुनश्च, वैद में अन्यत्र भी 'विज्ञानघन एवैतेभ्यः भूतेभ्यः' इत्यादि कथन है। इसमें 'एव' शब्द है, अतः तुम्हारे मत में विज्ञान से भिन्न का अस्तित्व अमान्य है। / परन्तु, तुम उक्त वेद-वाक्यों का जो अर्थ करते हो, वह अयथार्थ है। इनका वास्तविक अर्थ यह है-'पुरुष एवेदं' इत्यादि वाक्य का तात्पर्य स्तुति-परक है; अर्थात् इसमें अतिशयोक्ति का प्रयोग कर पुरुष की प्रशंसा की गई है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इसका तात्पर्य केवल शब्दार्थ से फलित न होगा / उक्त वाक्य में पुरुषाद्वैत के प्रतिपादन का तात्पर्य यह नहीं है कि संसार में पुरुष से भिन्न अन्य कर्म आदि का अस्तित्व ही नहीं है, किन्तु इसका सारांश तो यह है कि सभी आत्माएँ समान हैं, अतः जाति-मद को पुष्ट कर संसार में उच्च-नीच भाव की वृद्धि नहीं करनी चाहिए। 1. गाथा 1580 की व्याख्या देखें। 2. गाथा 1553 की व्याख्या देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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