________________ मग्निभूति ] कर्म-अस्तित्व-चर्चा ग्राहक प्रमाण के अभाव में भी स्वभाव का अस्तित्व मानते हो तो उसी न्याय से तुम्हें कर्म का भी अस्तित्व मानना चाहिए। पुनश्च, तुम स्वभाव को मूर्त मानोगे अथवा अमूर्त ? यदि तुम उसे मूर्त मानते हो तो वह कर्म का ही दूसरा नाम होगा / यदि उसे अमूर्त मानोगे तो वह रस्सी का भी कर्ता नहीं बन सकता / कारण यह है कि वह आकाश के समान अमूर्त और उपकरण-रहित भी है। फिर, शरीर आदि मूर्त-पदार्थों का कारण भी मूर्त होना चाहिए। इसलिए यदि स्वभाव को अमूर्त माना जाए तो वह मूर्त शरीरादि का अनुरूप कारण नहीं बन सकता, अतः उसे अमूर्त वस्तु-विशेष-रूप भी नहीं माना जा सकता। अग्निभूति-ऐसी दशा में उसे वस्तु-विशेष न मान कर यह मान लेना चाहिए कि अकारणता ही स्वभाव है। भगवान्-स्वभाव का अर्थ अकारणता किया जाए तो यह तात्पर्य फलित होगा कि शरीर आदि बाह्य पदार्थों का कोई कारण नहीं है; किन्तु यदि शरीर आदि का कोई भी कारण न हो तो वे शरीर आदि सभी पदार्थ सर्वत्र सर्वदा एक साथ ही किसलिए उत्पन्न नहीं होते ? तुम्हें इसका स्पष्टीकरण करना होगा। यदि उनका कोई कारण न हो तो उन सब पदार्थों में कारणाभाव समान रूप से होगा / अतः सभी पदार्थ सर्वत्र सर्वदा एक साथ उत्पन्न हो जाने चाहिए; किन्तु यह अतिप्रसंग होगा। फिर, यदि शरीर आदि को अहेतुक माना जाए तो उसे आकस्मिक भी मानना पड़ेगा। किन्तु ऐसी मान्यता प्रयुक्त है। कारण यह है कि जो अहेतुक (आकस्मिक) होता है वह बादल के विकार के समान सादि और नियत'आकार वाला नहीं होता। शरीरादि तो सादि और नियत आकार वाले पदार्थ हैं, अतः उन्हें आकस्मिक (अहेतुक) नहीं मान सकते; उन्हें तो कर्म-हेतुक मानना पड़ेगा। शरीर आदि पदार्थ सादि और नियत आकार वाले होने के कारण उनका कोई न कोई उपकरणसहित कर्ता भी मानना चाहिए / गर्भावस्था में जीव के पास कर्म के अतिरिक्त शरीर-रचना के लिए उपयोगी अन्य कोई उपकरण सम्भव नहीं है, अतः जगत् की विचित्रता स्वभाव-जन्य न मान कर कर्म-जन्य ही माननी चाहिए। ___ अग्निभूति-फिर तो यही उचित प्रतीत होता है कि स्वभाव का अर्थ वस्तु-धर्म किया जाए। भगवान् - यदि स्वभाव को आत्मा का धर्म माना जाए तो उस से आकाश के समान शरीर आदि की उत्पत्ति सम्भव नहीं, क्योंकि वह अमूर्त धर्म है। अमूर्त से मूर्त शरीर की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती / यदि स्वभाव को मूर्त वस्तु का धर्म माना जाए तो ठीक ही है / कारण यह है कि हम भी उसे पुद्गल का पर्यायविशेष ही मानते हैं / हम जिस वस्तु को सिद्ध कर रहे थे, एक प्रकार से तुमने भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org