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________________ अग्निभूति ] कर्म-अस्तित्व-चर्चा शरीर आदि का प्रारम्भ करने में असमर्थ है। कर्म-रहित जीव भी चेष्टा से हीन है, अतः वह शरीर का प्रारम्भ नहीं कर सकता। इसी प्रकार अमूर्तत्व-रूप हेतु से इसी साध्य की सिद्धि की जा सकती है कि निष्कर्म जीव शरीर का प्रारम्भ करने में समर्थ नहीं है / इसी साध्य की सिद्धि के लिए निष्क्रियता, सर्वगतता, अशरीरिता आदि हेतु भी दिए जा सकते हैं / अर्थात् कर्म माने बिना छुटकारा नहीं है। ___ अग्निभूति-हमें यह मानना चाहिए कि शरीर वाला ईश्वर देहादि सभी कार्यों का कर्ता है, कर्म की मान्यता आवश्यक नहीं है। भगवान्--तुमने सशरीर ईश्वर का प्रतिपादन किया है, किन्तु इसी विषय में मेरा प्रश्न है कि वह ईश्वर अपने शरीर की रचना सकर्म होकर करता है अथवा कर्म-रहित होकर ? कर्म-रहित होकर ईश्वर अपने शरीर की रचना नहीं कर सकता, क्योंकि जीव के समान उसके पास भी उपकरणों का अभाव है। इसी प्रकार की अन्य उपर्युक्त युक्तियाँ दी जा सकती हैं जिनसे यह बात सिद्ध होगी कि अकर्म ईश्वर की शरीर-रचना अशक्य है / यदि तुम यह कहो कि किसी दूसरे ईश्वर ने उसके शरीर की रचना की है तो फिर यह प्रश्न उपस्थित होगा कि वह अन्य ईश्वर सशरीर है अथवा शरीर-रहित ? यदि वह अशरीर है तो उपकरण-रहित होने के कारण शरीररचना नहीं कर सकता। इस विषय में ऐसे उपर्युक्त सभी दोष बाधक हैं। और यदि ईश्वर के शरीर की रचना करने वाले किसी अन्य ईश्वर को तुम सशरीर मानते हो तो वह यदि अकर्म है, अपने शरीर की ही रचना नहीं कर सकेगा, तब दूसरे की शरीर-रचना का प्रश्न तो उत्पन्न ही नहीं होगा। उसके शरीर की रचना के लिए यदि तीसरा ईश्वर माना जाए तो उसके सम्बन्ध में भी पूर्व क्त प्रश्न-परम्परा उत्पन्न होगी। इस प्रकार अनवस्था होगी। अतः ईश्वर को कर्म-रहित मानने से उसके द्वारा देहादि की विचित्रता सम्भव नहीं है ।यदि ईश्वर को कर्म-सहित माना जाए तो फिर यही मानना युक्ति संगत होगा कि जीव ही सकर्म होने के कारण देहादि की रचना करता है। अपि च, यदि ईश्वर बिना किसी प्रयोजन के ही जीव के शरीर आदि की रचना करता है तो वह उन्मत्त के समान समझा जाएगा और यदि उसका कोई प्रयोजन है तो वह ईश्वर क्यों कहलाएगा ? वह तो अनीश्वर हो जाएगा। ईश्वर को अनादि शुद्ध मानने पर भी शरीर आदि की रचना सम्भव नहीं है। कारण यह है कि ईश्वर राग़-रहित है। र.ग के बिना इच्छा नहीं होती और इच्छा के अभाव में रचना शक्य नहीं / अतः देहादि की विचित्रता का कारण ईश्वर नहीं, अपितु सकर्म जीव है। इससे कर्म की सिद्धि हो जाती है / [1642] अग्निभूति--विज्ञानघन एव एतेभ्यः' इत्यादि वेद-वाक्यों से ज्ञात होता है 1. गाथा 1553, 1538, 1592-94, 1597 देखें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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