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________________ गणधरवाद [गणधर सिद्ध होता है, किन्तु वेद में कर्म का निषेध बताने वाले वाक्यों को याद करने पर मेरा मन पुनः दोलायमान हो जाता है कि वस्तुतः कर्म है या नहीं ? वेद-वाक्यों की संगति भगवान्--यदि वेद में कर्म का अभाव ही प्रतिपाद्य हो तो वेद की यह विधि कि 'स्वर्ग में जाने के इच्छुक व्यक्ति को अग्निहोत्र करना चाहिए' निरर्थक सिद्ध होती है। अग्निहोत्र का अनुष्ठान करने से आत्मा में एक अपूर्व (कर्म) उत्पन्न होता है जिसके आधार पर जीव मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग में जाता है। यदि यह कर्म उत्पन्न न हो तो फिर जीव स्वर्ग में कैसे जाएगा? मृत्यु के बाद शरीर तो छट ही जाता है, अतः नियामक कारण के अभाव में स्वर्ग-गमन कैसे सम्भव होगा? इसलिए यह बात नहीं मानी जा सकती कि वेद में कर्म का निषेध प्रतिपाद्य है। पुनश्च, संसार में यह मान्यता है कि दानादि का फल स्वर्ग-प्राप्ति है। यदि कम न हो तो इसकी भी सम्भावना नहीं रहती। अतः कर्म का सद्भाव स्वीकार करना चाहिए।[१६४०] अग्निभूति-यदि ईश्वरादि को जगत् वैचित्र्य का कर्ता मान लिया जाए तो कर्म मानने की आवश्यकता नहीं रहती। ईश्वरादि कारण नहीं भगवान्-यदि तुम कर्म को न मान कर मात्र शुद्ध जीव को ही देहादिवैचित्र्य का कर्ता स्वीकार करो, अथवा ईश्वर से इस समस्त वैचित्र्य की रचना मानो, किंवा अव्यक्त-प्रधान, काल, नियति, यदृच्छा (अकस्मात् ) आदि से इस वैचित्र्य की संसार में उत्पत्ति मानो, तो तुम्हारी ये सब मान्यताएँ असंगत होंगी। [1641] अग्निभूति-इन की असंगति का क्या कारण है ? भगवान्--यदि शुद्ध जीव अथवा ईश्वरादि कर्म (साधन) की अपेक्षा नहीं है तो वह शरीरादि का प्रारम्भ ही नहीं कर सकता, क्योंकि आवश्यक उपकरणों या साधनों का अभाव है; जैसे कि कुम्भकार दण्डादि उपकरणों के अभाव में घटादि की उत्पत्ति नहीं कर सकता / शरीरादि के प्रारम्भ में कर्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी उपकरण की सम्भावना सिद्ध नहीं होती। कारण यह है कि यदि गर्भस्थ जीव कर्म-रहित हो तो वह शुक्र-शोणित का भी ग्रहण नहीं कर सकता और उसके ग्रहण के बिना देह निर्माण शक्य नहीं / अतः यह बात माननी पड़ती है कि ज.व कर्म-रूप उपकरण द्वारा ही देह का निर्माण करता है। दूसरा अनुमान यह हो सकता है--निष्कर्म जीव शरीरादि का प्रारम्भ नहीं कर सकता, क्योंकि यह निश्चेष्ट है / जो आकाश के समान निश्चेष्ट होता है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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